साहिल पर बैठे कुछ लोगों ने मुझ से पूछा , वो किनारा जो चल नहीं सकता , या वो लहरें जो ठहर नहीं सकती , इन दोनो में कौन ज़्यादा है मजबूर ?मैंने सोच विचार किया , दिल को भी टटोला , फिर मैंने कहा , सोचो तो दोनो नहीं हैं मजबूर , किनारे का ना चलना ,और लहरों का उछलना , इस बात पे इन दोनो को है बहुत ग़ुरूर ।सदियों से इन दोनो की यही है फ़ितरत , यही है आदत ।लहरों को उछलने मैं आता है मज़ा , और किनारे को चलने की नहीं है कोई ज़रूरत।किनारों पर बैठ कर लोग आनन्द लेते हैं , और लहरों में भीगने की उनको होती है चाहत।लहरें उछल उछल कर सब तो भिगा देती हैं ,और सब को गरम मौसम में भीगने की होती है हसरत ।लहरों और किनारों का ये मेल है बहुत आकर्षक , यह मिलन पैदा करता है दो दिलों में इक कसक ।मीलों तक फैला हुआ यह किनारा , सूरज ढलने पर बहुत ख़ूबसूरत हो जाता है ये नज़ारा।और इन मदमस्त लहरों के भी हैं बहुत शौक़ीन , यह आसमान छूती लहरें बना देतीं हैं ज़िंदगी और भी हसीन ।शुक्र है तेरा मौला , सब उसके दिए हुए नज़राने हैं , ये किनारे , ये लहरें ।या खुदा तू इस कायनात पर अपना करम रखना , ये किनारे थमें रहें , ये लहरें कभी भी ना ठहरें ।
निरेन सचदेवा जी