सुनहरे ख्वाब-“डॉ सुलक्षणा”

सुनहरे ख्वाब पलकों पर सजाया करती थी,
तस्वीर तुम्हारी आँखों में बसाया करती थी।

सुनो मिलती थी जब भी तुम्हारी चिट्ठी मुझे,
चूमकर चिट्ठी को सीने से लगाया करती थी।

अक्सर किस्से अपनी मोहब्बत के सुनाकर,
मन अपने बच्चों का मैं बहलाया करती थी।

रक्षा करने भारत माता की गए हैं सीमा पर,
दिन रात बच्चों को मैं समझाया करती थी।

पता नहीं था लौटोगे तुम तिरंगे में लिपटकर,
बच्चों को सपने सतरंगी दिखाया करती थी।

समझ नहीं पा रही हूँ आज रोऊँ या हँस पड़ूँ,
फ़ौजन बनने पर हर रोज इतराया करती थी।

कसम तुम्हारी अपने बच्चों को फौजी बनाऊंगी,
“सुलक्षणा” से नहीं यूँ ही इन्हें पढ़वाया करती थी।

©® डॉ सुलक्षणा

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