हम सब सुदामा ही तो हैं-“दास अरूण”

भगवान श्रीकृष्ण का सुदामा जी के प्रति प्रेम परमसत्य था परंतु यह चने वाली घटना का उक्तसंदेश में वर्णन कपोल कल्पित है, निम्न बातों पर ह्रदय में विचार करें:
१. ईश्वर पर कोई श्राप नहीं लगता।

२. सुदामा जी को त्रिकालदर्शी बताया है और सृष्टिनिर्माता- पालनहार को अविज्ञ!

३. पता था तो चने गुरु माता को या वृद्धा को लौटा देते या फेंक ही देते!

४. भगवान के पाने से भोगसामग्री के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं। चने के दोष भी समाप्त हो जाते।

५. वास्तव में भगवान के निमित्त दिये गये चने स्वयं खाने के कारण सुदामा जी के प्रारब्ध में सात जन्मों तक घोर दरिद्रता का लेखा था जिसे भगवान ने कृपा कर इसी जन्म में मेट दिया।

६. सुदामा जी ही क्यों हम सब पर भगवान का आत्यंतिक प्रेम परमसत्य है, हमारी आत्मा और शरीर भगवान की ही वस्तु है, इसे भगवान के कैंकर्य से हटाकर स्वयं का मानना और उपभोग करना जन्म- जन्मान्तरों के कष्ट को आमंत्रण है। परंतु ऐसे दुष्कृत्य का प्रारब्ध भी भगवान की ही कृपा से इसी जन्म में समाप्त हो सकता है बशर्ते सुदामा जी की ही तरह भगवान के द्वार पर असहाय-निरुपाय होकर खड़े हो जाओ!

सुदामा -प्रसंग हम सब के लिए शिक्षा है, क्यों कि हम सब सुदामा जी की तरह ही तो हैं:

सुदामाजी= भगवान के प्रिय बाल सखा
हम= भगवान से नवविध संबंध रखने वाले भगवान के अत्यंत प्रिय

सुदामाजी= गुरु माता द्वारा भगवान के निमित्त दिये गये चने स्वयं खा गए
हम= भगवद् विधान के अनुसार विधाता द्वारा भगवान के कैंकर्य निमित्त प्रदत्त मनुष्य शरीर और धन संपत्ति को स्वयं का समझ उपभोग कर रहे हैं

सुदामाजी= आर्थिक अति-विपन्न (गरीब)
हम= परमार्थिक अति-विपन्न

सुदामाजी= विपन्नता के बावजूद बड़ा परिवार जोड़ लिए
हम= परमार्थिक अति-विपन्न होकर भी और पापकर्म जोड़ रहे हैं

सुदामाजी= भगवान की वस्तु का स्वयं उपभोग करने के परिणाम स्वरूप ७ जन्मों तक अत्यंत विपन्नता भोगने का प्रारब्ध निर्मित कर लिए
हम= भगवान की वस्तु यह आत्मा, शरीर, धनसंपत्ति को स्वयं की मानकर उपभोग करने के परिणाम स्वरूप जन्म जन्मांतर तक भयंकर कष्ट भोगने का प्रारब्ध निर्मित कर रहे हैं

सुदामाजी= भगवान कृपा करेंगे यह जानकर भी वहां नहीं जाते
हम= भगवान ही रक्षक हैं यह जानकर भी हम नहीं चेतते

सुदामाजी= अंततः पत्नी के अत्यंत आग्रह पर भगवान के द्वार जाते हैं
हम= भागवतों के सत्संग के प्रभाव से गुरु और भगवान के द्वार पर जाते हैं

सुदामा= दीन-हीन, अकिंचन, निराधार, निरुपाय भगवान के द्वार पहुंचते हैं
हम= अपने उद्धार के लिए सब प्रकार से निराश हो भगवान को ही उपाय समझकर भगवान की शरण होते हैं

सुदामाजी= सड़े दुर्गन्ध युक्त चावल भगवान जबरदस्ती छीनकर अत्यंत प्रेम से पाते हैं
हम= हमारी अनुपयुक्त हीन सेवा भगवान स्वयं होकर अत्यंत प्रेम से स्वीकार करते हैं

सुदामाजी= प्रेम विव्हल होकर भगवान अश्रुजल से पांव पखारते हैं, कांटे निकालते हैं और सब प्रकार से सुश्रुषा करते हैं
हम= प्रेम विव्हल होकर भगवान हमारे कष्टों को हरते हैं, आत्मिक शान्ति और संतोष देते हैं और शरीरान्त के बाद गोद में बैठाकर लाड़ प्यार करते हैं

सुदामाजी= भगवान द्वारिका पुरी जैसी ही सुदामा पुरी बनाकर सुखी कर देते हैं
हम= हमें अपने जैसा ही स्वरूप प्रदान कर परमपद श्री वैकुंठ पुरी देकर सब प्रकार से सर्वदा सुखी करते हैं।

इस प्रकार सुदामा-प्रसंग और हमारी स्थिति में बहुत समानता है, जिस प्रकार भगवान ने सुदामा जी पर कृपा करके सब प्रारब्ध मेट दिए उसी प्रकार हम पर भी कृपा करके सभी प्रतिबंधकों को मेटते हुए हमें परमपद ले चलेंगे:

धर्मों में साधन भाव तजि कैंकर्य की करि भावना,
मुझको हि साधन मानि रहु यदि परमपद है पावना।
मत्प्राप्ति प्रतिबंधक अघों से अवशि तोहि छुड़ाउंगा,
मत शोचु निश्चय परमपद में भी तुम्हें पहुंचाउंगा।।

जय श्रीमन्नारायण। दास अरूण

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