हिंदी में कविता-“शरीफ खान”

ज़माने की तरह अपना चलन बदला
नहीं करते,
अँधेरों से उजाले कोई समझौता
नहीं करते |
तुम अच्छे हो अगर थोड़े से
गैरत-मंद भी होते,
भरे बाज़ार में ईमान को बेचा
नहीं करते |
हज़ारों ऐसी चीज़े है जो खरीदी
बेचीं जाती है,
सभी का सौदा करते है मगर अपना
नहीं करते |
दरख्तों की अगर पूछो तो
इंसानों से अच्छे है,
हवाओं में नफरतों का ज़हर घोला
नहीं करते |
ज़मीन का ज़ल ज़ला भरी चट्टानें
तोड़ देता है,
मकान कच्चा ही अच्छा है हम
उसे पक्का नहीं करते |
मज़ा जब है कि दुनिया में रहे
दरवेश की सूरत,
जो दुनिया से अलग जीते है वो
अच्छा नहीं करते |
“शरीफ” अल्लाह का फज्लो करम
है उन फकीरों पर,
ज़मीन की बादशाहत जो कभी माँगा
नहीं करते |

उर्दू के शब्दार्थ;
ज़ल ज़ला =भूकंप/कंपन,
दरवेश=फकीर/संन्यासी,
दरख्तों=वृक्षों/पेड़ों,
नफरत=ईर्ष्या/द्वेष भाव,
बादशाहत=राजशाही/लोकशाही,
गैरत-मंद=हया/शर्मिंदगी,
फज्लोकरम=कृपा/अनुकम्पा,
द्वारा: शरीफ खान ,
कोटा राजस्थान

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *