यह सर्वविदित है, कि हिन्दी साहित्य में संस्कृत भाषा के शब्दों का उपयोग हुआ करता रहा है और सभी धार्मिक ग्रंथों का लेखन संस्कृत भाषा के शब्दों में ही हुआ है, जिनका अनुवाद हिन्दी भाषा में हुआ है। और हिन्दी भाषा की जननी भी संस्कृत भाषा ही है।
देश-काल के परिवर्तन के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में रचनाओं के सर्जन में भी परिवर्तन आता गया है और यह परिवर्तन अधिकतर सकारात्मकता ही जगाता रहा है, क्योंकि समय के साथ-साथ आम बोलचाल में बोली जाने वाली भाषा में हर एक दशक में अंतर आ ही जाता है और शुद्ध शब्दों का उच्चारण कहीं न कहीं अशुद्ध होता चला जाता है, इसलिए हर देश-काल के वरिष्ठ और गुणी साहित्यकारों का यह कर्तव्य बनता है, कि वह हिन्दी साहित्य में की जाने वाली रचनाओं में शब्दों का चयन करते समय हिन्दी भाषा के शब्दों को उपयोग में लाने का उचित ध्यान रखें। जिससे कि हिन्दी साहित्य की छंद-शास्त्र विधाओं में लिखी जाने वाली रचनाओं में सुंदरता बनी रहे और आगे आने वाली पीढ़ियों को भी हिन्दी साहित्य का सही रूप प्राप्त हो सके।
आज के समय में हिन्दी साहित्य विधाओं में सर्जन करते समय कई साहित्यकार हिन्दी भाषा की शब्दावली से अधिक परिचित न होने के कारण अपनी रचनाओं में अन्य भाषाओं के शब्दों का उपयोग कर लिया करते हैं और हिन्दी साहित्य में सबसे अधिक उपयोग में लाई जाने वाली भाषा उर्दू है।
उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग आज के समय में आम बोलचाल में बहुत अधिक होना आरंभ हो गया है, क्योंकि हर एक साहित्यकार अपनी रचना को आम व्यक्ति की पहुँच तक ले जाना चाहता है, बस इसीलिए अब अधिकतर रचनाकार आम बोलचाल की भाषा के शब्दों में ही अपनी रचनाओं का सर्जन करके अधिक से अधिक जनमानस तक अपनी पहुँच बना लेना चाहते हैं, जबकि ऐसा करने से हिन्दी साहित्य की असल सुंदरता कम होती जा रही है।
हिंदी साहित्य में उर्दू शब्दों का उपयोग – लाभ
जिस प्रकार से सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार से हिन्दी साहित्य जगत में आज के समय में रची जा रही रचनाओं में उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग होने से लाभ भी हैं । जो इस प्रकार हैं –
उर्दू भाषा के शब्द कहने और पढ़ने में अच्छे लगते हैं और कुछ शब्द बहुत आसान होते हैं।
उर्दू भाषा के शब्दों को हिन्दी साहित्य में लिखने से छंद विधान की मापनी में लिखने में आसानी हो जाती है।
उर्दू भाषा के शब्दों में अपनी रचनाओं का सर्जन करने से रचनाओं में एक अलग ही आनंद आ जाता है।
हिंदी साहित्य में उर्दू शब्दों का उपयोग – हानि
हिन्दी साहित्य में उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग करने से सबसे बड़ी हानि यह हो रही है, कि हिन्दी छंद-शास्त्रों की आत्मा का पतन होता जा रहा है और छंद विधान में रची जा रही आध्यात्मिक रचनाओं की सुंदरता में भी कमी आती जा रही है और कालजई काव्य संग्रह का निर्माण होना बंद हो गया है, अब केवल रचनाओं का सर्जन हो रहा है, लेकिन मन पर अपने शब्दों की अमिट छाप छोड़ देने वाली रचनाओं का सर्जन लगभग बंद-सा हो गया है।
हिन्दी साहित्य विधान को सरल भाषा में लिखा जाने के लिए आम बोलचाल की भाषा में रचनाओं का सर्जन करके आज के रचनाकार काव्य की आत्मा को मार दे रहे हैं और केवल छंद विधान में शब्दों को भर कर रचना सर्जन की खानापूर्ति कर दे रहे हैं।
हिन्दी साहित्य में हिन्दी भाषा के अलावा उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग करने से आज के रचनाकारों की रूचि हिन्दी भाषा की शब्दावली के अनेकानेक सुंदर-सुंदर शब्दों का ज्ञान बोध प्राप्त करने की जिज्ञासा ही समाप्त हो गई है, जिससे निम्न कोटि के काव्य सर्जन की संख्या बढ़ती जा रही है और उच्च कोटि के काव्य सर्जन की संख्या नगण्य होती जा रही है
जैसा कि सर्वविदित है, कि “परिवर्तन संसार का नियम है।” उसी प्रकार से यह समय हिन्दी साहित्य के छंद-शास्त्र विधानों में उर्दू भाषा के शब्दों के उपयोग का यह आरंभिक दौर चल रहा है और जिस प्रकार से आज हिन्दी साहित्य की रचनाओं में अन्य भाषाओं के शब्दों का उपयोग बढ़ता जा रहा है, आगे चलकर रचनाओं की लेखन-पद्धति में हिन्दी भाषा के कठिन शब्दों का उपयोग नगन्य हो सकता है, क्योंकि आज के समय में पाठकों को तुरंत समझ में आने वाली भाषा में लगी रचनाओं को पढ़ने और सुनने में रूचि है, वह कठिन और शुद्ध हिन्दी भाषा के शब्दों से अनभिज्ञ हैं और कई भाषाओं से मिली-जुली बोली बोलने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं, ऐसे में शुद्ध हिन्दी बोलने वाले व्यक्तियों को पुराने समय का व्यक्ति समझा जाता है।
चूंकि आजकल घरों में भी शुद्ध हिन्दी भाषा में बातचीत नहीं होती है, बल्कि हिंग्लिश भाषा में ही बातचीत होती है, इसलिए हिन्दी भाषा के शब्दों का प्रयोग लगभग खत्म होता जा रहा है।
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ रचनाकारों की ऐसे समय में कर्तव्यनिष्ठा बढ़ जाती है, कि वह अपनी रचनाओं में हिन्दी शब्दों का ही उपयोग करें और साथ ही साथ कठिन हिन्दी शब्दों के अर्थ को सरल भाषा में भी समझा दिया करें।
धन्यवाद
©® विकास अग्रवाल “बिंदल” , भोपाल मध्यप्रदेश