हे निर्दय पिता!(एक पिता ऐसे भी)-“बृजेश आनन्द राय”

………..”हे निर्दय पिता!”…………..” ………………….
(एक पिता ऐसे भी)

…………… कविता………………………………..

हे निर्दय पिता!
मैं आप के द्वारा मेरे स्रम को निचोड़ कर छोड़ी गयी
मेरी अपनी,आधी-अधुरी,गयी बीती,
बद से बदतर, ‘बीमार-जिन्दगी’-
अब नहीं जीना चाहता!
बडी कृपा की;
‘तब तक दरते पीसते कूटते सानते रहे,
जब तक कि-
मिट्टी न पलीद हो गयी!’
इसीलिए जन्म दिया था तुमने-
”बिन पैसे का एक दास होगा,
मनमाना उससे काम होगा!
‘बात पूछने’ की क्या जरूरत?
भाव भंगिमा से ही डराना काफी होगा!
आचरण है मेरा निर्मोही,
चरित्र है मेरा उज्जवल;
नारी-सौन्दर्य का नहीं अभिलाषी मैं,
कहीं और न किसी तरह से दागी मैं,
फिर न क्यूं आजीवन कुटुंब पर-
रोब-दाब अधिकतम होगा!
यदि यदा-कदा रोब-दाब का प्रभाव-
कहीं से कम जो दिखने लगे तो;
कभी शिशु सा ,कभी साधु सा
निर्दोष शील स्वभाव का आडंबर कर/
भोलापन चेहरे पर लाकर/
झूठे ‘गरीबी का रोना’ रोकर
या
वार्ता का ‘सम्मोहन-मन्त्र-विशेष-राग’ चलाकर
चाहे जैसे भी,
जिस तरह भी बन पड़े,
अपने मन का-
मनमाना स्रम करवाएंगे
चाहे उसकी ‘चमड़ी चली जाये पर-
अपनी दमड़ी नही गवाएंगे!
सदैव मातृ-पितृ भक्ति का पाठ पढ़ा पढ़ाकर
कभी पारिवारिक मोह माया की चासनी लगाकर
चाहे कैसे भी,
किसी तरह भी,
शाम, दाम, दण्ड-भेद अपनाकर
बचपन से ही भरमा-भरमा कर
उसे अति अनुशासित बनाएंगे
(‘तन को बना लो बली ऐसा,
सह ले वर्षा सर्दी घाम…
जैसे कोरे कहावत-कथनों से )
और ‘केवल बातुनी चर्चों से’ परशुराम, श्रवण , भीष्म, उपमन्यु आदि के दृष्टांतों से-
‘पितृ-भक्ति-कर्म-सिद्धांत’ का पाठ पढ़ाएंगे!
इस तरह से बिन पैसे का नौकर एक बनाएंगे!
कुछ भी हो जाये चाहे, सब बच्चों को-
सम-शिक्षा का अवसर-
कदापि न उपलब्ध कराएंगे!
यदि सब शिक्षित होंगे, तो छोड़ चलेंगे;
फिर बार्धक्य में एक भी काम न आएंगे!
फिर द्वार पर कैसे पशु शोभित होंगे?
स्रम-लागत बिन फसल कैसे लहलहाएंगे?
और तो और…
कुछ न कुछ….
सुत विभेद भी करना होगा…!
‘यदि बेटों को आपस में कम या अधिक नहीं लड़ाएंगे-
तो फिर बुढ़ापे में अपनी पारंगत तानाशाही कैसे सदैव चलाएंगे …!
फिर बिन स्व-धन-श्रम के कैसे-
घर बैठे-बैठे मनचाहा व्यवहार होगा…
घर के भोजन में दूध भात और-
द्वार पे चाय का दावत होगा?’
इसीलिए कुछ न कुछ तो करना होगा..!
अच्छा है यह विचार-
“जो कोई भी एक सुत स्वभाव से-
निश्चय ही ‘कुटुंब-मोही’ होगा…’
….उसका लाभ उठायेंगे !
कभी डराकर कभी धमकाकर
मनचाही राह चलाएंँगे!
भावनाओं के ब्लैक मेलिंग में-
युग गाथा बहुविधि कई सुनाएंगे;
‘तानों’ से तपा-तपाकर –
‘लोहा’
और खेतों में खटा खटा कर-
‘घोड़ा’,
निश्चय ही उसे बनाएंगे!
‘आह-करने’ या थकने- बैठने पर
कोड़े भी बरसाएंगे;
इस तरह से जब-तब चाहे-
अपना फ्रस्ट्रेशन भी मिटाएंगे!
जब कभी किसी भी दिन
लगाम ढीला होता देखेंगे तब
उसको- लांछना-प्रताड़ना के-
मकड़जाल में-
उलझा उलझा कर
‘नरो मरो वा कुंजरो (सत्य-असत्य) के
युधिष्ठिर बन जाएंगे!’
बाहर न हो चालाकी पर घर में हम-
कूटनीति और कपट नीति से
खड़मंडल खूब मचाएंगे!
ये सब कुछ गृह-अन्दर करके भी-
बाह्य समाज में घूम-घाम कर
चाय और भोजन का दावत ले-देकर
बिन ‘शास्त्र-आचरण’ केवल शास्त्र-चर्चा कर
परिश्रम, दायित्व, की अतिशय बातें कर
चोला चोंगा, डील-डौल से
तथा अपने नैसर्गिक-आग्रह-गुण से
स्वयं को सबसे ‘धर्मराज’ कहलवाएंगे!
और इन सब के बातों-बहानों से,
जांगर बचा कर-शारीरिक श्रम से ,
स्वयं ही अपना पीठ ठोक-ठाककर
सारे निरर्थक कामों को अपने-
घर में महान जताकर;
पत्नी पुत्र सहित कुटुम्ब में सबसे-
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर;
‘बुद्धिमान-शास्त्रज्ञ’ का आडंबर कर-
अत्यंत धौंस जमायेंगे;
इस तरह—
धन-व्यय, स्रम-व्यय दोनों से
आसानी से बच पाएंगे!
जो इससे भी बात न बने;
और भी…,
यदि ‘सुत-स्वाभिमान’ जरा भी जागे;
तो अवश्य उसे कुचलना होगा!
अतः
बन्धु-बान्धव को जुटा-पटाकर
जब-तब
पंचायत भी कराएंगे;
हीन-भावना से उसे ग्रस्त कर एक दिन –
सम्पूर्ण ‘मानसिक-दास’ बनाएंगे’
फिर उसे ‘विक्षिप्त-बीमार’ की संज्ञा देकर
‘रोगी! रोगी! चिल्ला कर
पास पड़ोस को सुना-सुना कर
गाली गुप्ता दे-दे कर
अतिशय ही खिसवाएंगे!
जायेगा कहाँ बचकर…
….’यदि जो लोक-लाज और
जग-हसाई का अर्थ
बचपन में ही बार बार समझा देंगे!’
स्वयं आराम का यही तरीका होगा!
भला इससे बेहतर क्या होगा?
हम भी आराम-कुर्सी के भाग्यशाली
बड़े आदमी कहलाएंगे!
हमारा भी समाज में चर्चा होगा
पैसा न एक खरचा होगा…!”
——————— 2 ——————–
जो-जो आप सोचते गए
वो, वो सब कुछ होता गया
पर रौद्र रूप न कभी आपका सौम्य हुआ!
कभी आप ने बात न पूछी
कभी न सिर पे हाथ रखा!
आप सोचते रहे सदा कि –
‘हो न हो प्रोत्साहन के बोलों से-
कार्य-उत्पादन कम हो जाए;
बिन पैसे का नौकर है-
कहीं न विश्राम-पसंद हो जाए!’
इधर मैं ‘पितृ-मोह’ में
आप से आगे सोचता रहा
सोचता रहा और खटता रहा
मैं क्षमता से अधिक स्रम करता रहा
स्रम करता रहा और गलता गया
बाहर से दुर्बल अंदर से खोखला होता गया!
पर भारी भरकम गौरांग व्यक्तित्व आपका;
मुझ पे न कभी हलका हुआ!
इसी तरह से करते-करते…
गलते-गलते, चलते-चलते;
जाने क्यूँ?
इक दिन मेरा पैर लरखराने लगा!
तब मैं धीरे-धीरे, रुक-रुक कर
पहले से अधिक समय ले-लेकर-
अपने सब दायित्वों का-
प्रतिदिन निर्वहन करने लगा!
तब मेरा कार्य-विलम्ब आप को अखर गया…
और इक दिन तब मैंने सुना-
“यदि तुम्हारे पास कार्य की शक्ति नहीं;
तो मुझे चाहिए तुम्हारी ‘ पितृभक्ति ‘ नहीं!
यदि कार्य करोगे पहले जैसा नहीं;
तो मेरे पास भी तुम्हारे दवा का पैसा नहीं!
क्यों कोई तुम सबसे अपेक्षा रक्खो;
और क्यों कोई तुमसे उम्मीद न रक्खे…?”
फिर कुछ ही दिन बाद सुना,
“तुम हमारा साथ छोड़ दो;
तुम्हारे लिए हम नहीं,
हमारे लिए तुम नहीं!”
इस प्रकार —-
मुझे रुग्ण जान कर भी
आपको कभी मेरी चिंता न हुई!
बल्कि ‘गृह-कार्य अब कैसे होगा?’
इसी सोच में शोषण की प्रवृत्ति बढ़ती गई!
धीरे धीरे असहिष्णुता आपकी-
अमानवीयता की हर इक सीमा लांघ गई!
बस आपकी इक ही चिंता
“खेती ‘ये’ न करेगा…तो कौन करेगा?
घर ‘ये’ न अगोरेगा…तो कौन रखेगा??
कहीं कभी ऐसा न हो कि-
हम अब तक की तरह,
कहीं निश्चिंत घूम न पाऍ!
और कृषि उत्पादन,पशु पालन का
नैतिक भार मुझपे आ जाए…!
…मेरी दमड़ी भी खर्च होने लगे और
उत्पादन में भी कमी हो जाए! “
इसलिए आपने अपने भग्नाशा में-
शोषण के सब हथकंडे अपनाए!
गहरे छेद किये बोलकर हृदय में मेरे;
अपने अशांत-असन्तोषी मन के
‘अनायास की सब दाह’ मिटाए !
छोटों के सम्मुख अपमान किए
बड़ों के समक्ष तिरस्कार दिए
आपको प्रसन्न रखने के मैंने
क्या-क्या नहीं ऊपाय किए..!
कुछ विद्या भी अर्जित की
सुकुमार तन बहु बोझ लिए!
सदा आपके आदेशानुसार—–
‘पाले-पशुओ’ की नींद से सोये
उनके जागने से हम जागे ;
पर आपने उनके जितना भी
कभी न मुझको स्नेह दिए!
घास-फूस, खेती बाड़ी,
बोवनी, सीचनी कटनी करते करते!
अतिथियों समक्ष एक पैर खड़ा हो-
औपचारिकता और परिचारकता करते;
हे पिता!आप के बहु-विधि,
बहु-समय ताने सहते;
इक दिन मैं अचानक गिर ही पड़ा,
और ऐसा गिरा कि उठ न सका!!
—— —- —–
पर, अब तो बीमारी के दलदल मे
जब धसी आध जीवन-काया
तब मुझमें किसी को क्यों हो अनुरक्ति…;
अब मुझसे किसी को कैसी हो माया ?
—————-3——————–
अब तो जाने का वक्त आ गया है….लगता!
पिता हो, आशीर्वाद दो, क्षमा कर दो !
मेरा तो ‘ईश्वर’ से बैर रहा है….;
आप तो ‘आजीवन-यशस्वी-आस्तिक- पुजारी हो…!
अंत समय की ईच्छा है…..!
‘किसी तरह मेरा सत्वर सदगति प्राणांत हो ‘
उससे ये प्रार्थना कर दो!!!
……………………………………………………………………
🖍️ स्वरचित:- बृजेश आनन्द राय,
ग्राम: नैपुरा, पोस्ट: मुफ्तीगंज, जनपद: जौनपुर, उत्तर-प्रदेश.
6394806779
9451055830

7 Comments

  1. डॉ सुरेश

    जी डॉ साहब

    • Kuldeep singh रुहेला

      बहुत ही सुंदर और बेहतरीन शब्दों की व्याख्या आपने अपनी कविता में की है एक पिता के बारे में जो व्याख्या अपने अपने की है वह बहुत ही काबिले तारीफ और बेहतरीन है बहुत ही सुंदर लिखा आपने पिता के बारे में अगर पिता अपने बच्चों पर कठोर ना हो तो वह जीवन में कभी कामयाब ना हो यह इस पारदर्शिता को दर्शाती हुई है आपकी कविता बहुत ही सुंदर है बहुत लंबी तो है मगर बहुत ही अच्छी लिखी है आपने पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा हृदय व्याकुल हो गया बहुत ही अच्छा आपको ढेर सारी शुभकामनाएं

  2. डॉ सुरेश

    जी डॉ साहब

    • Brijesh Anand rai

      बहुत बहुत धन्यवाद ममता जी!
      आप बहुत सहृदय हैं जो सहृदयता से समाज की एक सच्चाई को अनुभूत कीं; हो सके तो इस कविता को औरों तक पहुंचाने की कृपा कीजिएगा।🌹🥀🌺👏

  3. Dilip singh

    बृजेश भाई ,

    आपकी कबिता पढ़ने के बाद ऐसा लगा की “कठोर “और “निर्दय ” दोनों में कोई मेल नहीं है यहाँ केवल और केवल “निर्दय ” ही उचित है जैसा आपका शीर्षक है। इस काब्य में “घृणा “का मिश्रण जिस तरीके से किया गया है वह किसी से छुपा नहीं है। कबि ह्रदय इतना कोमल होता है की कबि अपने भावनाओ को ब्यक्त करते समय मार्मिक शब्दों का चयन किया है जिससे काब्य निरंकुश न होकर अंकुश में ही रह गया यह कबि की महान विचारो का ही रूप है इसमे रूपक का प्रयोग कबि की बुद्धिमत्ता का ही योग है।

    पिता को ध्यान में रख कर इस काब्य को लिखना​ बड़ा ही कठिन कार्य था क्यूंकि पिता का “कठोर ” होना तो सब ने देखा होगा लेकिन “निर्दय ” बहुत कम। यह एक निष्कपट ,निर्मल ह्रदय ,मार्मिक विचारो वाला​ कबि ही लिख सकता है।​

    • Brijesh Anand rai

      बहुत बहुत धन्यवाद आपको पढ़ने व टिप्पणी देने के लिए दिलीप जी।

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