तुम इतनी भोली-सुन्दर हो, क्यों मन का अभिसार न होता
तुम जैसा कहाँ है कोई, कैसे तुमसे प्यार न होता!!
सुरभि-सुगन्धे, पद्मिनी-गंधे, मधुर- मनोहर बोल तिहारे
अमृत-जीवन, मधुरित-जीवन, बरसे- सुमन- अनमोल- तिहारे
बरबस ही बाँधा करते हैं, नयनों के ये डोर तुम्हारे
तुमसे है सुषमा यौवन की, तुमसे है भुजबंध ये सारे
तेरे रहते मम-जीवन में, क्यों सुख का संचार न होता
अरी केशिनी! रूप सलोनी! कैसे तुमसे प्यार न होता!!
तुमसे हर्षित धरा-गगन है, तुमसे सारा वन-उपवन है
तुमसे सजती प्रात-रस्मियाँ, तुमसे मण्डित नील-गगन है
तुमसे है पंछी का कलरव, तुमसे गुंजित भ्रमरी-रव है
तुमसे है पर्वत की आभा, तुमसे नदियों में जल-रव है
तेरे दर्शन में सुख-पाकर, क्यों प्रणय-साकार न होता
अरी मोहिनी! रूप-शालिनी! कैसे तुमसे प्यार न होता !!
तुम हो झरनों की सुर-लहरी, मानस-सागर-मंथन-गहरी
मेरे मधु-मान-सरोवर में, केवल एक विम्ब तुम ठहरी
सुघर साँचा देह तुम्हारा, जैसे कोई लवंग-वृक्ष हो
‘अमिय-उजास-रूप-तुम्हारा’, मेरे मन का सुन्दर पहरी
तुम ना होती तो रचना में, नवरस का झंकार न होता
अरे रूपिणी! रूप-विजयिनी! कैसे तुमसे प्यार न होता!!
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बृजेश आनन्द राय, जौनपुर