” जैसा अन्न वैसा मन “
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शाम का धुंधलका छाता जा रहा था । सूर्य अस्त होकर अपने मंजिल की ओर अग्रसर होते जा रहा था । छूट पुट अंधेरा होने के कारण रास्ता भी स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था और उस धुंधले अंधियारे में एक साधु तेज कदमों से रास्ता नाप रहा था ।
हर रोज की तरह भिक्षा यापन करने हेतु एक साधु अास पास के गांव से घूमकर अपनी कुटिया की ओर लौट रहा था लेकिन विलम्ब होने के कारण आज अंधेरा हो गया था और साधु की कुटिया अभी दूर थी और जंगल पार करके जाना था जिसमें जंगली जानवरों का भय बना रहता था । अतः साधु ने रात एक गांव में गुजारने की सोची और इधर उधर दृष्टि दौड़ाई । इतने में उसे थोड़ी दूर पर एक दिए की रोशनी दृष्टिगोचर हुई । उम्मीद का दिया जलाए साधू ने उस दरवाजे पर दस्तक दी । दरवाजा खुला और एक महिला ने दरवाजा खोला । दरवाजे पर एक सन्यासी को देखकर उसने अभिवादन कर उन्हें आदर पूर्वक बिठाया और विनम्रतापूर्वक पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं । सन्यासी ने अपने वस्तु स्थिति से अवगत कराया और कहा कि यदि उन्हें रात्रि गुजारने के लिए जगह मिल जाए तो आप लोगों का भला हो । महिला ने बताया कि उनके पतिदेव काम के सिलसिले में पास के शहर गए हैं और सुबह तक लौटेंगे लेकिन उनके रात्रि विश्राम में उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं है ।
उस महिला ने सन्यासी को हाथ पैर धुलाने के लिए बाल्टी में जल लाकर दिया और पीढ़ा पर बिठाकर गरमा गरम खाना परोस दी । भोजन पश्चात विश्राम हेतु बाहर के दालान में एक खाट बिछाकर बिस्तर लगा दी। चूंकि गरमी का दिन था तो बाहर पंखे की जरूरत नहीं थी । बाहर ठंडी ठंडी हवा चल रही थी और बिस्तर पर लेटे लेटे सन्यासी की नजर पास में एक पेड़ से बंधे तंदरुस्त और खूबसूरत घोड़े पर पड़ी । घोड़े को देखकर साधू के मन में अकस्मात ये विचार आया कि यदि ये घोड़ा मेरा हो जाए तो तो रोज रोज पैदल चलने के झंझट से मुक्ति मिल जाए । और साधु ने उस घोड़े को चुराने का निश्चय कर लिया ।
यही सब सोचते हुए सन्यासी के आंखों से नींद गायब । जैसे तैसे आधी रात कटी और रात्रि के दूसरे पहर अचानक सन्यासी अपने बिस्तर से उठता है और धीरे से पेड़ के करीब जाकर पेड़ से बंधे घोड़े के रस्सी की गांठ खोल देता है और घोड़े की पीठ पर सवार होकर वहां से नौ दो ग्यारह हो जाता है ।
चलते चलते सुबह का उजियारा होने लगता है और साधु को एक नदी दिखाई देती है । नदी देखकर साधु को स्नान ध्यान करने का विचार आता है । यही सोचकर उसने घोड़े को एक पेड़ के जड़ से बांधकर फारिग होने हेतु नदी कि ओर प्रस्थान करता है।
नित्य कर्म से फारिग होकर जैसे ही साधु स्नान ध्यान करते हैं उन्हें बिल्कुल हल्का महसूस होता है । साथ ही यह महसूस हुआ कि उनसे कोई बहुत बड़ी भूल हो गई है और उन्हें याद आया कि रात में उन्होंने चोरी जैसा जघन्य पाप किया है ।
पश्चाताप से भरकर सन्यासी ने घोड़ा लौटाने की सोची और वापस लौट चले अपने गंतव्य की ओर । उस मेजबान के घर पहुंच कर उन्होंने दस्तक दी और दरवाजा उसी महिला ने खोला और सन्यासी से कहा आप तो कहीं गए हुए थे घोड़े लेकर फिर कैसे लौट आए । तब सन्यासी ने बीती रात से लेकर अब तक की आप बीती सुनाई और महिला से पूछा कि आपके पतिदेव क्या काम करते हैं तब महिला ने बताया कि उसके पति एक चोर हैं और वे चोरी के कार्य से ही उनका भरण पोषण करते हैं ।
अब सन्यासी को सब कुछ समझ आ चुका था कि रात्रि चोरी के अन्न खाने से ही उनके मन में ये बुरा विचार आया था ।
इसीलिए कहा गया है कि ” जैसा अन्न वैसा मन “।
एस के नीरज
एम ए ( अंग्रेजी, हिन्दी ),
एल एल बी
रायपुर छत्तीसगढ़

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