पटल पर समीक्षा एवं सुधार हेतु
पुनर्मिलन के स्वप्न सॅजोए,
‘अमिट-प्यास’, हृदय में हरसे!
आ जाओ ना, ऐ निर्मोही!
खुली ऑख से सावन बरसे!!
इक-इक मौसम बीत रहा है,
हर मौसम बिन गीत रहा है!
तेरे बिन मधुमास जो आया,
अपने गुण से रीत रहा है!
अब ना कोयल कूॅजे बन में,
अब ना पपिहा का मन तरसे!
खुली ऑख से सावन बरसे!!
शीत लगे, ना जाड़ा उबरे,
आठ महीना पतझड़ गुजरे!
बारिश कम आई है जानो,
तुम हो हुए पराए जब से!
उभरे पोखर की पानी में,
पहले सा कब जलचर हरषे?
खुली ऑख से सावन बरसे!!
तेज धूप में जले मही है,
ऑच लपेटे हवा बही है!
झूलस रहे हैं तन तरूवर के
अब ना छाए कुंज कहीं है!
उजड़ रहे हैं बाग बगीचे,
शीतल-मन कैसे कर सरसे!
खुली ऑख से सावन बरसे!!
‘शरद-चॉदनी,’ अगन लगाती,
हेमन्ता संग तपन बढ़ाती!
‘शिशिरा’, की अब बात न पूछो,
तेरी याद की जलन जलाती!
रीति बदलती है ऋतुओं की,
‘रचना’, उलट हो रही कब से!
खुली ऑख से सावन बरसे!!
………………………………………………………………….
✍️ बृजेश आनन्द राय, जौनपुर