फलक पर आज छाया,ख़ामोश पहरा क्यों है…
शब्बो ग़म की परछाइयों का साया..इतना गहरा क्यों है??
रोशन ए चिराग़ उल्फत का,कर के हमने देख लिया..
छोड़ के दामन अदावत का,मुस्कुरा कर भी देख लिया..
रंज-ओ-ग़म में इबादत का,वास्ता देकर देख लिया..
मोहब्बत में उनकी नफरत से,राबता रख कर देख लिया।
इतने जतन के बाद भी,गुलशन..उजड़ा सहरा क्यों है..
शब्बो ग़म की परछाइयों का साया..इतना गहरा क्यों है??
मैंने खुद को भुला कर,उनका मन बहला कर देख लिया..
अपनी रुसवाईयां छोड़कर,उसके ग़म सहला कर देख लिया..
उनकी हर नादानी में मैंने,लहजा मिला कर देख लिया..
उनकी गुस्ताखियों का चिश्ती बन,यकीन दिला कर देख लिया।
इतने एतबार जाता के भी,महताब का..उतरा चेहरा क्यों है..
शब्बो ग़म की परछाइयों का साया..इतना गहरा क्यों है?
उनकी तबस्सुम के खातिर,हर कीमत अदा कर जाऊंगा..
चाहत मुकम्मल करने को,जिंद जान फना कर जाऊंगा..
वो जो कह दे हंस कर,मैं ये दुनिया छोड़ जाऊंगा..
मिटाकर हस्ती,ख़ुद की..तेरा जहान रोशन कर जाऊंगा।
यकीन रख मुझ पर, ए हुस्न की मलिका, दिल..बावरा क्यों है..
मिट जाएगी शब्बो ग़म की परछाई,फिक्र का साया..इतना गहरा क्यों है.??
स्वरचित
हरजीत सिंह मेहरा,
लुधियाना,पंजाब,भारत।