या तो हमें मुकम्मल चालाकियाँ सिखाई जाएँ , नहीं तो मासूमों की अलग बस्तियाँ बसाई जायें ।
किसी ने यह लिखा तो मेरे मन में आया यह विचार , आख़िरकर ज़िंदगी में क्यूँ चाहिए चालाकियाँ ?
क्या हम इक ऐसी ज़िंदगी नहीं बसर कर सकते जहाँ सिर्फ़ हों प्यार की बारिकियाँ , रिश्तों में हो नज़दीकियाँ , ना हों गलतफहमियाँ ।
चतुरता किसी हद तक फिर भी ठीक है , लेकिन चालाकी से सिर्फ़ विनाश होता है , हो चतुर लेकिन रहो मधुर !
ये चालाकी जैसे जज़्बात भी तो इंसान ने ही किए हैं इजात , तो फिर अगर इंसान चाहे तो इन से मिल सकती है निजात।
ऊपर वाले ने तो हमें दी थी एक कायनात , बहुत लाजवाब , बहुत ख़ूबसूरत ,और दिए थे जज़्बातें प्यार और मोहब्बत ।
ना जाने कहाँ से इंसानों ने सीख ली चालाकियाँ और शैतानियाँ , और फिर लुप्त हो गयी मासूमियत ।
क्या हम सब कोशिश करें तो नहीं दूर हो सकती बनावटें , इस कायनात पर हों बस प्यार की सजावटें , चारों तरफ़ सुनाई दें मधुर आहटें ।
क्या पाया है चालाक बन कर , सच पूछो तो इंसान हो गये हैं नापाक !
ऊपर वाले को भी ये देख कर होती होगी रंजिश ,ऐसी तो नहीं बनाई थी उस ने ये कायनात , क्यूँ बद से बदतर हो गये हैं इस धरती के हालात ?
अगर सब ही मासूम हों तो फिर मासूमों की एक अलग बस्ती की क्या है ज़रूरत ?
और अगर सब ही मासूम हैं तो फिर इंसानों में छिपी दिखेगी भगवान की मूरत ।
क्या करेंगी चालाकियाँ , सिर्फ़ लाएँगी परेशनियाँ और बरबादियाँ , दिलों को तोड़ देंगी , रिश्तों को निचोड़ देंगी ।
दूर कर देंगी अपनो को अपनों से , दूर कर देंगी नींदों को कुछ हसीन सपनों से ।
तो यारों क्या तुम ऐसी ज़िंदगी जीना चाहते हो , यक़ीनन तुम्हारा जवाब होगा नहीं , कभी नहीं ।
तो फिर अभी भी कुछ नहीं है बिगड़ा ,बदल दो अपना रवैया अभी के अभी ।
आओ इस पल से ही हम इस धरती को प्यार से महका दें , करें सुशोभित , और फिर मौला भी देखे तो हो जाए मोहित ।
ख़ुद भी अच्छे संस्कार पालें और अपनी नस्लों को भी दें अच्छे संस्कार ।
फिर चालाकियों का दूर दूर तक नाम तक ना होगा , बस अच्छाइयों से ही लिप्त और तृप्त रहेगा ये संसार।

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