उदयराज सिंह के उपन्यासों में स्त्री-“रजनी प्रभा”

 प्रसिद्ध कथाकार उदयराज सिंह का कथा- वितान आजादी के पहले से लेकर आठवें दशक तक के सामाजिक यथार्थ और राजनीतिक चेतना को आत्मसात करता हुआ बहुपथीन रश्मियों को विकिर्णित कर  मानवीय संबंधों को उद्घाटित करता है। उनका संपूर्ण साहित्य ’उदयराज  रचनावली’ नाम से चार खंडों में प्रकाशित हो चुका है।उनके उपन्यास साहित्य में अपने समकालीन समाज को बेहद करीब से देखने-परखने की दृष्टि मिलती है, जिसके अध्ययन से हिंदी उपन्यासों के कथ्य और शिल्प की पहुपथीन रश्मियां विकिर्णित होंगी! दो शतकों के संधि काल के समय एक ऐसे यशस्वी, तेज पुंज, सरल हृदय और लेखनी संपन्न रचनाकार का उद्भव होता है ,जिसे दुनिया आज सुप्रसिद्ध कथाकार उदयराज सिंह के नाम से संबोधित करती है! उन्होंने विभिन्न विधाओं में लेखनी चलाकर हिंदी कथा साहित्य का मार्ग प्रशस्त किया, जिस पर चलकर हिंदी कथा साहित्य समृद्धि की ऊंचाइयों को छू सका। उपन्यास,कहानी, एकांकी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, स्केच सहित विभिन्न विधाओं में रचना करने वाले उदयराज सिंह की रचनाओं में ब्रिटिश कालीन सामंती व्यवस्था से गुजरते हुए, स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनीतिक, सामाजिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक विभिन्नता के साथ-साथ धार्मिक व्यवस्थाओं,कुरीतियों ,अंधविश्वास ,भ्रष्टाचार, वर्गभेद और तत्कालीन समाज में व्याप्त अराजकता स्वत: दृष्टिगोचर होती है। उन दिनों की गतिविधियों और प्रभावों  को जानना-समझना हो तो उदयराज सिंह के उपन्यास हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं! यदि स्वातंत्र्योत्तर बिहार और स्वतंत्रतापूर्व के बिहार की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक उथल-पुथल के बारे में जानना हो तो उदयराज सिंह  की रचनाएं विशेषकर उनके उपन्यास नींव के पत्थर सिद्ध होंगे, जिनमें तत्कालीन परिवेश को यथावत रूप में प्रस्तुत करने की बेजोड़ कोशिश की गई है।

सन 1921 में बिहार के सूर्यपुरा स्टेट के स्वामी राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के आंगन की शोभा बने उदयराज सिंह का जन्म शाहाबाद में हुआ।वह दो भाई थे। उनके परिवार में लेखकों की एक सुसमृद्ध परंपरा रही थी। उनके परदादा दीवान रामकुमार भारतेंदु मंडल के प्रतिष्ठित कवियों में से एक थे। उनके सुपुत्र राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह, जो ‘प्यारे कवि’ के नाम से सुविख्यात थे, वह भी भारतेंदु मंडल की शोभा थे। भारतेंदु जी से इनका पारिवारिक स्नेहपूर्ण संबंध था। प्यारे कवि के पुत्र राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह शैली सम्राट के नाम से हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित हैं। जिनकी लिखित कहानी ‘कानों में कंगना’ को हिंदी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है और ‘राम रहीम’ इनकी उत्कृष्ट औपन्यासिक कृति है। इन्हीं के सुपुत्र उदयराज सिंह हुए, जिन्होंने अपने स्कूली समय में ही हस्तलिखित पत्रिका ’सौरभ’ और  ’विकास’ का संपादन किया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से  बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर एम.ए. में नामांकन कराया,लेकिन सन 1942 की क्रांति में सक्रिय रहने के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी ।1941 ईस्वी में राजराजेश्वरी साहित्य परिषद की स्थापना सूर्यपुरा में की, जिसके अधिवेशन में स्वर्गीय आचार्य शिवपूजन सहाय, पंडित छविनाथ पांडे, श्री रामवृक्ष बेनीपुरी, श्री रामगोपाल रूद्र,’विकट’ आदि ने विभिन्न रूपों में भाग लिया।इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विद्यार्थी जीवन में ही अनेक कहानियां, एकांकी और छोटे निबंधों की जो रचना इन्होंने प्रारंभ की, वह जीवनपर्यंत निर्बाध गति से चलती रही।इनकी भाषा सरल ,सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण थी। राष्ट्रभाषा परिषद तथा उसके अनेक समितियों के सदस्य भी रहे। अशोक प्रेस, पटना के संचालक रहने के साथ- साथ ‘नई धारा’ पत्रिका के 1950 से 2014 तक संस्थापक संपादक भी रहे। 1942 की क्रांति के दौर में जयप्रकाश नारायण, श्रीमती सुचेता कृपलानी, श्री हेमवती नंदन बहुगुणा आदि से मित्रता भी हुई। विश्वविद्यालय में अध्ययन काल में ही ’रजनीबाला’ एकांकी विश्वविद्यालय द्वारा पुरस्कृत करते हुए, कोलकाता से प्रकाशित हुई।हिंदी की प्रथम पत्रिका ‘उदंड मार्तंड’ की डेढ़ सौवीं  जयंती के शुभ अवसर पर बंग हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा ’संपादक शिरोमणि’ की उपाधि से आपको विभूषित किया जाना हिंदी साहित्य की वृहद उपलब्धि थी।’भूदानी सोनिया’ जिसकी भूमिका लेखक जयप्रकाश नारायण थे, राजस्थान विश्वविद्यालय में बी.ए. की पाठ्य पुस्तक रही! बिहार सरकार की राजभाषा विभाग ने भी इन्हें अपना सर्वोच्च सम्मान ‘ राजेन्द्र प्रसाद शिखर पुरस्कार’ अर्पित कर सम्मानित किया।
प्रसिद्ध कथाकार उदयराज सिंह प्रेमचंदोत्तर कालीन उन रचनाकारों में अग्रपांक्तेय हैं ,जिनका लेखन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन से प्रभावित होते हुए भी सामाजिक यथार्थ से ओत-प्रोत हैं। आजादी के तुरंत बाद के भारतीय समाज के जीवन दर्शन पर पड़ने वाले भारतीय राजनीति की छाया का यथार्थ चित्रण उदय राज सिंह जी के उपन्यास साहित्य में मिलता है ।यही नहीं, तत्कालीन सामंती व्यवस्था में आम लोगों की जीवनचर्या और उन पर पड़ने वाले शासन व्यवस्था के प्रभावों का सटीक चित्रण भी उनके साहित्य में देखने को मिलता है । उपन्यास के अलावा भी साहित्य की अन्य विधाओं में मसलन कहानी, एकांकी, शब्दचित्र, संस्मरण आदि में उन्होंने प्रचुर लेखन किया है ।उनकी चर्चित कृतियों में
नवतारा (कहानी एवं एकांकी),
उदयराज सिंह की कहानियां (कहानी संग्रह),मुस्कुरारा  अतीत (संस्मरण),
सफरनामा (यात्रा वृतांत), गांव के खिलौने (स्केच) सहित सात उपन्यास
‘अधूरी नारी’, ‘रोहिणी’,’भागते किनारे’, ‘भूदानी सोनिया’ ,’अंधेरे के विरुद्ध’ , ‘उजाले के बीच’ और ‘कुहासा और आकृतियां’ हैं!
उदयराज सिंह के सभी उपन्यास प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्त्री चरित्र के ही इर्द-गिर्द घूमते और उसकी यथार्थ स्थिति को चित्रित करते प्रतीत होते हैं।यों कहा जाए कि विषय भले ही भिन्न हों, मगर सभी का धरातल स्त्री चरित्रों ने ही प्रदान किया है।कहीं स्त्री को ममता की मूरत,कहीं ज्वलंत अग्नि शिखा,कहीं समर्पण की देवी,कहीं समाजसेविका,कहीं समाज से तिरस्कृत वैश्या,तो कहीं
अपूर्ण आशाओं की प्रतिबिंब के रूप में इसे बारीकी से उद्घाटित किया गया है, जिससे उसके किरदारों के साथ सामान्यीकरण स्वत: साथापित हो जाता है। राजवंश से सरोकार रखते हुए भी उनके लेखन का केंद्र दबे, कुचले, वंचित समुदाय और स्त्री चरित्रों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना ये साबित करता है कि रचनात्मक विवेक पर समाजवाद का गहरा प्रभाव था।यही कारण है कि उसे पढ़ने के बाद पाठक में यथोचित परिवर्तन स्वत: परिलक्षित होते हैं। ‘अधूरी नारी’ एक सामाजिक उपन्यास है। पाश्चात्य जीवन दर्शन से प्रभावित उपन्यास के पात्र भारतीय जीवन से दूर जा गिरे हैं और उनमें मानवता के सामान्य गुणों की भी उपेक्षा नजर आती है। भारतीय समाज पर यूरोपीय जीवन शैली को लेकर लिखा गया यह उपन्यास हमें बहुत सारी चीजों से परिचित कराता है, जिसमें पाश्चात्य जीवन से प्रभावित उच्च वर्ग का मर्म चित्रित किया गया है, जिसके पात्र पाश्चात्य प्रभाव के झंझावात  में पड़कर अपनी भारतीय आदर्शों के मंदिर से बहुत दूर जा गिरा है, जिसमें मानवता का अति साधारण गुण भी उपेक्षित होता जा रहा है। इसकी साकार प्रतीक नीना को लक्षयार्थ करके उदयराज जी का उपन्यास आज के आधुनिक नारी समाज की यथार्थ अभिव्यक्ति में सफल हुआ है। उपन्यास के फॉरवर्ड और आधुनिक नारी के विशद विवेचन को देखकर ऐसा लगता है ,जैसे उपन्यासकार ने समाज का कोना कोना झांक लिया है ।कैसे एक वेश्या के यहां जन्म लेकर भी किरण अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ती ।पति प्रेम से अधूरी रहकर भी वह मानवता की भावना से ओत-प्रोत समाज सेवा से पूर्ण हो जाती है और कैसे एक संपन्न फॉरवर्ड घराने की स्त्री नीना पाश्चात्य आडंबर में पड़कर अधूरी नारी ही रह जाती है। अंततः पछतावे का बीज अंकुर से पौधा बनकर नीना को घोर अंधकार में ले जाता है। उपन्यास में जैनेंद्र और अज्ञेय के पात्रों के समान मनोविज्ञान स्वभाविक रूप से अधूरी नारी के पात्रों में भी स्वत: परिलक्षित होता है! एक वेश्या पुत्री होने के नाते किरण को सभी बुरी नजर से देखते थे। मिश्राणी ने उसे समझाया – बुझाया कि वह भी अपनी मां जैसे धंधे पर उतर आए। मगर किरण ने उनकी एक नहीं मानी तो फिर मिश्रानी ने कहा-’तो ठीक है, मगर तेरे लिए दूसरा रास्ता ही कौन है? कुलीन घर में तू उतर ही नहीं सकती। वैश्या की बेटी से थोड़े ही कोई शादी करेगा। तेरे यहां लोग चकले बाजी करने आएंगे या तुझे मंगेतर बनाने। विरादरी वाले तो नौ नतीजा करके धर देंगे ।तेरे लिए भला अपना कुल खानदान कौन घुमाएगा।अनारी ना बन बेटी, भगवान ने तेरे लिए जो रास्ता बना रखा है,उसी पर आंख मूंदकर चल और कहो तो मैं अपने पास से कुछ पूंजी देकर तुझे किसी कोठे पर बिठा दूं। फिर तो तू जहान जीत लेगी।कंचन सी देह, चढ़ती उमर ,फूल सा खिला-खिला चेहरा।सच कहती हूं मां की तरह तू भी किसी दिन किसी की रानी बनकर ही रहेगी। दिन सुख से कट जाएंगे।’(उदयराज सिंह रचनावली, संस्करण-१९९३, पृ.सं.-१४) इतने पर भी किरण का दृढ़ संकल्प नहीं डोलता! उसकी अंतरात्मा इसकी गवाही नहीं देती।इधर उसे बेचने की योजना बन रही थी उधर वो कल्पनाओं में विचरण कर रही थी_
“मां जैसी थी, मैं वैसी ही  क्यों बनूं?……. छि:!क्यों बनूं वैसी?  मां जो कुछ भी थी,उसमें मेरा क्या कसूर?…… चुड़ैल कहती है,वैश्या की बेटी से शादी कौन करेगा? क्या सब के सब अंधे ही हैं?सब के सब बिरादरी से डरने वाले…… कमजोर? ना, मैं यहां नहीं मानने वाली….और… भगवान का भरोसा क्यों छोड़ूं ?हाथ – पैर बने रहेंगे, मुट्ठी भर अन्न के लिए नही मरूंगी।निगोडी समझती है,गली के किसी कोठे पर मैं रूप की दुनिया बसा सकती हूं? तो क्या अपनी दुनिया के लिए एक झोपड़ी नहीं बसा सकती?“(वही, पृ.सं.-१५) उधर नीना की तंद्रा एक आवाज से टूटती है।एक बुढ़िया की नजर जो उस पर पड़ी तो गिड़गिड़ाकर बोली–’ मां जी एक मुट्ठी चावल मिल जाए!’  ’अच्छा इस लकड़ी की गाड़ी पर कौन है?’ ’मेरे ही सर्वांग हैं।’ ’तुझे भी तुझे पसीना आ रहा है।’ ’ क्या करूं मां जी, उम्र हुई उस पर एक जून भी घर पर दाना नहीं मिलता। गाड़ी चलाते-चलाते सारे शरीर की कमाई इनमें चली गई। “(वही, पृ.सं.-११५)  नीना को जैसे यथार्थ का बोध हो आया।यह भी मेरी तरह हाड़ मांस की बनी नारी है मगर पति की सेवा में पसीने – पसीने हो रही है।इसके जैसा त्याग मेरे भाग्य में कहां?   सामाजिक ताने-बाने को अपनी लेखनी से हम सब के समीप उद्धृत करने वाले एक वरिष्ठ और समाजसेवी लेखकों में शुमार थे उदयराज सिंह। इनके उपन्यासों के स्त्री पात्र बहुत ही प्रभावशाली हैं।उन्हीं की लिखित एक और कृति-‘रोहिणी’….इस औपन्यासिक कृति में समाज के मध्यम वर्ग की मानसिकता को मुखरित किया गया है, जिसके मूल केंद्र में है पुरुषों में बेकारी की भयंकर समस्या और नारियों में हृदय द्रावक  आत्म- संघर्ष। यहां शेखर समस्या का प्रतीक पात्र है, तो बीनू आत्म संघर्षशीलता की सजीव करुणा की मूर्ति। इस उपन्यास की मूल विशेषता यह है कि यह आडंबरहीन है। इस उपन्यास में शब्दों का ऐसा प्रभावी ताना-बाना बुना गया है,जिसे शैली का चरम उत्कर्ष कहना उक्ति संगत ही होगा। उपन्यास के प्रमुख पात्र रोहिणी अगर ’श्रद्धा’ है,तो विनोदिनी ’इड़ा’ इन दोनों के साथ शेखर के संबंधों से उपन्यास का विस्तार होता है। रोहिणी शादीशुदा और बीमार पति की ऐसी नवयौवना वधू है, जिसकी बेकसी और बेबसी ही जिंदगी है।घर में सब कुछ है मगर सुख सपना हो गया है।उसकी इसी अवस्था से सहानुभूति रखते रखते रोहिणी को शेखर से और उसे शेखर से  प्रीति हो जाती है।बिनु जो  मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने  के साथ-साथ गरीबी से संघर्षरत एक ज्वलंत अग्निशिखा है, वह शेखर से कहती है-‘शेखर आज का समाज मुंहचोरों के लिए नहीं है। पुरानी लीक पर चलने वाले अब मुंह के बल आ जाएंगे। यहां जीना है तो दबंग बनो।महलों में रहने वालों से डरो नहीं और ना ही उनसे दया की भीख मांगो। हाथ पसारने के बदले जेब कतरना  सीखो। ये ईमारतें किसी मंदिर में मन्नत मांगने से नहीं बनी। राम- नाम के जप पर नहीं खड़ी। अजी,वह तो बहाना है बहाना,हमें भूलावे में रखने का एवं टकसाली तरीका। इसमें बसनेवाले सब के सब चोर हैं…’नंबरी डाकू’! इस तरह संत बनने से नहीं मिलेगी नौकरी। दफ्तर के बाबू का कुछ चटाओ।“(वही, उपन्यास रोहिणी, पृ.सं.-८) जब रोहिणी के गांव जाने का समय आ गया, तब वह बिनु को एक पत्र लिखती है–‘बीनू बहन, अपनी थाती शेखर को तुम्हें सौप कर जा रही हूं। देखना इस पर कोई आंच ना आए। क्या मैं तुम्हें इसकी पत्नी के रूप में कभी देखने की आशा कर सकती हूं?माफ करना जाने क्यों मैं ऐसा लिख गई?'(वही, पृ.सं.-५३)
‘भूदानी सोनिया’ लेखक का चर्चित उपन्यास, जिसमें संत विनोबा भावे के भूदान यज्ञ के प्रभाव के साथ-साथ तात्कालिक समाज में व्याप्त भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत के जनजीवन को अत्यंत सूक्ष्म यथार्थ और मार्मिक अभिव्यंजना के साथ-साथ उद्देश्यात्मक रूप में भी वर्णित किया गया है। ’भूदानि सोनिया’ सफल पात्रों के चित्रण के साथ विस्तार पाती भारतीय जन-जीवन की गाथा है। व्यापक समाज की रूप बदलती कथा है, जिसमे स्त्री चरित्रों की भागीदारी अविस्मरणीय है। उदयराज सिंह की अन्य रचनाओं में जो सामाजिकता है, वह यहां भी उपलब्ध है, अपनी पूर्ण गरिमा के साथ। ’भूदानी सोनिया’ में लेखक ने गोरी सरकार के हिमायती दीनबहादुर और उनकी बेटी मंजुला के माध्यम से समाज के दुश्मनों का मुखौटा भी उतारा है और साथ-साथ विकास दिखलाने के स्वतंत्रता पश्चात भारतीय समाज विशेषत: देशभक्त और त्यागी नेताओं के करतूतों की  भी पोल खोल कर रख दिया है। नवीन अब बदल चुका है। वह त्यागी से भोगी बन जाता है। सेवा भावना को यश तृष्णा ने ढंक दिया है।विलासी जीवन बन गया है। यही स्थिति रामु भगत की भी है।इन दोनों से भिन्न विचार रखनेवाली  सोनिया जब इन्हें समझा नहीं पाती तो अपनी मौसी के यहां सेवासदन में चली जाती है। वह दीन दुखियों की सेवा करना चाहती है। उस गांव में जब भूदान यज्ञारोहन के यशस्वी नेता स्वामी गोकुल नाथ का पदार्पण होता है, तो सोनिया उससे प्रभावित होकर भूदान यज्ञ में शामिल हो जाती है। सोनिया अपने पिता से कहती है“बाबा,यह उचित नहीं।गरीबों के पैसे पर गुलछर्रे उड़ना फलेगा नहीं। आजादी के जमाने में हमने सत्तू खाकर और धूप में पैदल चल – चल कर काम किए हैं। आज भी वही लगन चाहिए, वही सेवा-भाव चाहिए। सेवा की वृत्ति कभी बदलती नहीं।मगर मैं तो कुछ और ही देख रही हूं।आजादी आते ही हम कुछ बदले – बदले से दिखते हैं।हमारे अंदर गैर जिम्मेदारी बढ़ती जा रही है। आज जब हमें अपने को और भी संवारना है तो हम यह भी कर रहे हैं।आखिर यह तमाशा क्या है?“(वह, पृ.सं.-१२६) ‘भागते किनारे’ सामाजिक मनोभावनाओं, अवरोधों और क्रिया -प्रतिक्रियाओं के सामंजस्य के साथ-साथ तत्कालीन परिस्थितियों का ज्वलंत चित्र प्रस्तुत करने वाला एक सशक्त और सक्षम उपन्यास है, जिसमें प्रमुखता तो पुरुष पात्रों की ही है,परंतु सारी घटनाएं नारी पात्रों के जीवन दर्शन को पारिभाषित करती हैं। माला कैसे मध्यमवर्ग फॉरवर्ड समाज की हिस्सा है, जो पढ़ा लिखा तो है ही साथ ही आर्थिक विपन्नताओं का भी विकसित रूप है। ’भागते किनारे’ एक ऐसी व्यथित नारी के संपूर्ण जीवन का निचोड़ है, जिसे कभी किनारा नहीं मिलता। उपन्यास में समाज में व्याप्त लोक लाज,पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ, स्त्री पुरुष भेद  और उनके संबंधों के प्रति संकुचित धारणा के साथ-साथ दहेज दानव का भय भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।लता की शादी अजीत से बिना दहेज हो सकती है, इसीलिए मां उन दोनों को अजीत से मिलने से नहीं रोकती। मगर अजीत के इनकार करने पर उससे बुरा उनके लिए कोई और भी  बचता भी नहीं अर्थात स्वास्थ्य सिद्धि ना होने पर किस प्रकार गुण अवगुण में परिवर्तित हो जाते हैं इसकी सफल अभिव्यक्ति हुई है। अजीत यह जानते हुए भी कि माला केवल और केवल उसी से प्रेम करती है, पारिवारिक जिम्मेदारियों और लोक लाज के कारण माला की शादी अरुणचंद से करवा देता है। दोनों एक नहीं हो पाते। जहां एक स्त्री अपने पति के विवाहपूर्व संबंधों को सहजता से स्वीकार लेती है, वहीं पुरुष अपनी पत्नी के विवाह पूर्व प्रेम संबंधों को आजीवन नहीं स्वीकार कर पाता है। चाहे वह कितना भी सरल होने का दंभ क्यों न भरे ।यही किया अरुण ने।वह माला और अजीत के संबंधों को नहीं स्वीकार पाता और अवसाद में धीरे-धीरे छय रोगग्रस्त हो साथ में माला की खुशियों को लिए परलोक गमन कर जाता है। अब जिस पैनी दृष्टि से उपन्यासकार  ने समाज में व्याप्त स्त्री-पुरुष प्रेम के सामाजिक सोच पर तीव्र प्रहार किया है ,वह हमें सोचने पर विवश करता है, कि क्या वास्तव में स्त्री पुरुष प्रेम केवल दैहिक या  मांसल ही होता है? इसमें  निश्चलता,नि:स्वार्थता, पवित्रता और अपनापन का कोई वजूद नहीं हो सकता ? इसी विकृत सोच को पाले रहने से अरुण ने माला को विधवा बना दिया। माला एक ऐसी प्रतिमूर्ति है जिसने जब भी अपनी मंझधार में फंसी कश्ती को किसी सहारे रूपी किनारे पर टिकाना चाहा, परिस्थितियों ने उसे अकेला ही कर दिया।तमाम संघर्षों के वाबजूद जब माला आखिरकार अजीत को छोड़ कर जाने लगती है तो लिखती है“आज माला चली गई, माला चाहती है ,वह संघर्षों के बीच ही रहे। शायद उसका जन्म इसी के लिए हुआ है। मगर चिंता कैसी?वह बहुत प्रसन्न जा रही है मिसेज शरण की शरण में।उसे इतना तो भरोसा है, कि मेरा प्यार, मेरा स्नेह ,मेरी अटूट ममता ,उसे सदा मिलती रहेगी। चाहे वह कहीं भी रहेगी चाहे वह कहीं भी रहे, कैसी भी रहे।यह भरोसा तो उसके संघर्षमय जीवन का संबल रहेगा। मन कहीं भी रमे,तन कहीं भी रहे, मगर उसका हृदय तो बस मेरे….. दुनिया उसे विधवा कहती है! हां वह विधवा है , शउसकी मांग का सिंदूर धूल चुका है, मगर क्या सचमुच वह  विधवा है? वह तो मानती है ,कि उसने वैधव्य का अभिशाप अंगीकार किया अपने सुहाग की लाली अचल करने को। तो वह विधवा नहीं है। कदापि नहीं ।“(वह, पृ.सं.-१४४) ‘अंधेरे के विरुद्ध’ एक ऐसी उत्कृष्ट सांस्कृतिक कृति है,जिसमें ओजस्विता के साथ-साथ विचार दर्शन की  अभिव्यंजना भी कई पीढ़ी की घटना -विस्तार के साथ मुखरित हुई है। ब्रिटिशकालीन जमींदारी  संस्कृति की झांकी के साथ -साथ  मेहरुन्निशा और राव साहब की कथा को विस्तार दिया गया है। तत्पश्चात राव साहब के ही वंशज नगेंद्र का उसी गांव में बी.डी.ओ. बनकर आना और स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार का शिकार हो फिर गांव से यूनिवर्सिटी रिसर्च करने चले जाना दिखाया गया है। उदयराज सिंह ने इस उपन्यास में ब्रिटिश कालीन सामंतवादी युग से लेकर स्वतंत्रता के पश्चात बदलते राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का जो सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस उपन्यास में ना तो सुधारवाद है, न ही  मनोवैज्ञानिक स्फूलिंगों का वेदनावाद।तत्कालीन समाज में, संस्कृति में, राजनीति में,प्रशासन में, ऊंचे नीचे वर्गों के जीवन में,सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार को यहां स्वर दिया गया है।सामंतवादी काल में राव साहब के यहां हर सावन पूर्णिमा को राज मंदिर के विशाल कक्ष में राधा माधव की मूर्ति के सामने बेमिसाल महफिल सजती थी। इस महफिल की शोभा बनने आए बनारस की मेहरून्निसा के रूपकला पर आसक्त हो राव साहव उसे लालबाग वाली कोठी में रखने लगे।इन दोनों का एक बेटा भी हुआ। मेहरून्निसा नेक दिल थी।उसी के कहने पर राव साहब अपनी पत्नी राज रानी के पास गए। उन दोनों को भी एक पुत्र हुआ। महाराज साहब के आकस्मिक निधन के पश्चात रामजन्म और सिमरिया ने उसकी मां और चाचा को बनारस रवाना कर दिया और राजरानी के बेटे को बसंतपुर का मालिक घोषित कर दिया। उनके परपोते नगेंद्र का तबादला जब बी.डी.ओ.बन कर उसी गांव में हुआ तो उसने सोचा स्वतंत्र भारत में चहूं ओर जो व्याप्त अराजकता है, उससे उनका गांव ज्यादा प्रभावित है,तो उसे दूर कर स्थिति में सुधार लाएंगे। उन्होंने और ब्लॉक के डॉक्टर साहब ने बहुत कोशिशें भी की, मगर गांव में प्रपंचों का सिलसिला जारी था। सारा गांव राजनीति का अखाड़ा बना है। एक स्त्री तो केवल स्त्री होती है, उसे वैश्या तो ये समाज बनाता है।उसकी भोली मानसिकता इस पंक्ति से स्पष्ट होती है“इतनी मेहनत मुझसे ना होगी अम्मी। मुझे मुआफ करो। बस, समैया में चंद नमूने पेश करने को तुम मुझे यहां लाई थी, अब महीनों बिता दिए और अब चाहती हो कि इतना रियाज कर लूं की पूरी गायिका बन जाऊं। यह मुझसे न होगा।कभी-कभी जी उबने लगता है! इस घर का कोना – कोना काटने लगता है।अब कब घर लौटना होगा अम्मी? चाचा जी तो लौट ही गए।”(वही, अंधेरे के विरुद्ध, पृ.सं.-३३) उस मेहर को क्या पता था, अब से तो वो इस घर में जड़ दी गई है।
इस तरह इस पूरे उपन्यास की कथावस्तु अंधेरे के विरुद्ध एक टकराहट और अंतद्वंद्व बनकर रह जाती है।
बहुआयामी रचना साधना के रचनाकार उदयराज सिंह के रचना विवेक को उनके उपन्यासों में परखा जा सकता है। जहां वे सामाजिक यथार्थ के चित्र द्वारा एक सर्व समाज की स्थापना के आकांक्षी दिखते हैं, जिसमे स्त्री पात्र बड़ी प्रमुखता से अपनी साख जमाती हैं।स्त्रियों के भिन्न_भिन्न रूपों,उनकी सामाजिक,राजनीतिक स्थिति,उनकी मनोदसा,उनके त्याग, समर्पण और प्रेम इनके उपन्यासों का केंद्र हैं, जिससे तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति को सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया गया है।
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संपर्क : द्वारा– कुंदन कुमार सिंह,ग्राम: जारंगडीह, पोस्ट: जारंग ड्योढी, मुजफ्फरपुर:843118
चल भाषा :9135598597
ईमेल:rajni.prabha22@gmail.com

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