करपी जगदम्बा स्थान-“सत्येन्द्र कुमार पाठक”

भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव – पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव – पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र – मंत्र – यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा करूष एवं शर्याती सोन प्रदेश और हिरण्यवाहू प्रदेश की नीव रखा था । राजा करूष ने कारूष प्रदेश की राजधानी कारुषी नगर में सौर धर्म की स्थापना कर भगवान् सूर्य की उपासना का रूप दिया। कारूषि हिरण्यबाहू की पूर्वी और पश्चिमी 11 वीं धारा के मध्य में भगवान् विष्णु आदित्य एवं षष्टी माता और शाक्त धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म की स्थापना किया गया था। बाद में अरवल जिले के करपी कहा जाने लगा। वर्तमान में करपी जगदम्बा स्थान मंदिर में दर्जनों मूर्तियां के अलावा भगवान् चतुर्भुज, माता जगदम्बा , शिवलिंग, भगवान् शिव एवं माता पार्वती विहार स्थापित है। सभी मूर्तियां करपी गढ़ की उत्खनन के तहत प्राप्त हुई है। इतिहासकार तथा साहित्यकार सत्येन्द्र कुमार पाठक के अनुसार करपी का स्थल प्राचीन काल में शाक्त संप्रदाय का था । करपी की भूमि पवित्र और वैदिक नदी हिरणयबाहु आधुनिक बह प्रवाहित है । करपी का सती स्थान प्रसिद्ध है । सती स्थल पर पांच पतिव्रता की प्राचीन काल की पहचान है । करपी शेरपुर वंशी पथ जम्भोरा के किनारे स्थित करपी का सतीआढा या सती स्थल नाम से ख्याति है वहीं करपी कुर्था पथ के किनारे स्थित करपी का ब्रह्म स्थान प्रसिद्ध है । प्राचीन काल में करपी सौर धर्म का स्थल था जहां पर भगवान् सूर्य की पूजा कर चतुर्दिक विकास होता था। यहां की रखवाली के लिए चार मठ थे जिसका नाम उतर की ओर उतरवारी मठिया ( गुलजारबाग ) , दक्षिण दिशा में दक्षिणवारी मठिया , पूरब में पुरवारी मठिया और ब्रह्म स्थान तथा पश्चिम में पछिमवारी मठिया वर्तमान में फुलवाहन विगहा तथा पाठक बिगहा के नाम है जहां भगवान् सूर्य की मूर्ति एवं मंदिर और तलाव स्थापित है। करपी ऐतिहासिक सम्पदा के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। पूर्व ऐतिहासिक काल से विकसित होने वाली संस्कृतियों और विभिन्न युगों में सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगभग एक लाख वर्ष पूर्व विकसित होने वाली आरंभिक पूर्व प्रस्तर युगीन अवशेष मूर्तियां उपलब्ध हुई है। मध्यवर्ती और परवर्ती पूर्व प्रस्तर युगीन 40000 से 10000 ई. पू. के अवशेष मूर्तिया मिले हैं और भू गर्भ में है। करपी के दक्षिण की ओर कभी भटौली ( आराधना ) स्थल था जहां वर्तमान में भटोलिया कहा जाता है और पूरब में गोराधौवा ( पैर धोने का स्थल) , तलाव को बेरौवा था। उतर की ओर पिंडी स्थापित तथा तलाव भी है। यहां विभिन्न राजाओं ने तलाव निर्माण और 05 कूपो का निर्माण कराया था । दक्षिण में यम स्थल था जिसे जम्म भोरा जहां 05 सतियों की पिंडी स्थापित है। राजा हर्षवर्धन काल 606 ई. पू. में सूर्योपासना का केंद्र था। 300 ई. पू. भीषण बाढ़ और आपदा एवं अाकाल पड़ने के कारण कारुषी नगर भू गर्भ में समाहित हो गई थी बाद में यह स्थल कारुशी, करुषी, कुरंगी, कुरपी कर्पी बाद में करपी नाम से विख्यात हुआ है। 1400 ई. पू. एशिया मईनर का बेगाज कोई से वैदिक देवता मित्र, वरुण, इन्द्र और नसत्य ( अश्विनी कुमार) थे जिन्होंने सूर्य उपासना तथा ब्रह्मऋषि विश्वामित्र रचित ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में सूर्यदेव सावित्री को समर्पित गायत्री मंत्र है। विश्वामित्र करूष प्रदेश के ऋषि थे। 1921 ई. में पुरातत्व वेता दयाराम साहनी एवं मधोस्वरूप वत्स के समय करपी गढ़ का उत्खनन से भू गर्भ में समाहित प्राचीन काल की महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त हुई जिसे निवासियों को दे दिए गए हैं । करपी से दो किलो मीटर पर पुनपुन नदी के किनारे कात्यायनी ( कोइलीघाट) है ।

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