ग़ज़ल-“सन्तोष पांडेय”

अंतर्मन की पीड़ा पीकर, लोगों को हँसते देखा l
रोज अर्थ में डूब डूब कर, लोगों को मरते देखा ll

तन मन को मुरझाने मत दो, सत पथ पर नित अडिग रहो l
झंझावातों में भी हमनें, फूलों को खिलते देखा ll

ख्वाब सुनहरे टूट गए तो, फिर सुन्दर सपनें होंगे l
सूरज कभी नहीं थकता है, जब देखा चलते देखा ll

गिरकर उठना उठकर चलना, यही ज़िंदगी से सीखो l
इक छोटी सी धारा को भी, सागर से मिलते देखा ll

दोपहरी हमको धमकाती ,रात बहुत तड़पाती है l
दिन को तितली और रात को जुगनू भी उड़ते देखा ll

मन हारा तो हार मिलेगी, मन जीता तो हार मिले l
“सरित” कफन के बाद सभी को, माला से लदते देखा ll

ग्राम कवि सन्तोष पांडेय “सरित” गुरु जी

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