मूढ़ मनुज को दिखी प्रकृति अनमनी नहीं।
उसको दिखतीं इसकी भौंहें तनी नहीं।
एक अँधेरा पहने खड़ी निशा बोझिल।
बुझा-बुझा चंदा, चुलबुल चाँदनी नहीं।
सतमंजिल भवन के जंगल उगे खड़े।
दूर-दूर तक दिखती कोई वनी नहीं।।
पर्यावरण उदास घुला विष साँसों में।
होती पहले जैसी वर्षा घनी नहीं।।
सूखा जल नदियों की पतली क्षीण कमर।
पहने दिखती नावों की करधनी नहीं।।
आए बाहर घर से निकल खुले में हम।
धुआँ- धुआँ हर ओर बात कुछ बनी नहीं।।
_डा०अनिल गहलौत
समांतक ——
मनी, तनी, दनी, वनी, घनी, धनी, बनी।