भेदभाव (लघुकथा)

भेदभाव (लघुकथा)

बचपन से शहर में पली-बढ़ी प्रिया को जब भूमि ने अपने गांव होली में चलने को कहा तो उसकी बांछें  खिल गई।होली के दिन पूरा गांव एक अलग ही रंग में रमा था। आपसी सौहार्द ,भाईचारा और प्रेम से सराबोर माहौल प्रिया को आकर्षित कर रहा था। अब बारी थी घर -घर जाकर होली खेलने और पुआ-पूरी खाने की।भूमि प्रिया और उसकी सहेलियां सभी घर-घर जाकर और घूम-घूम कर होली का भरपूर आनंद ले रहे होते हैं। तभी उन्होंने सुना सीमा की मां किसी को जोर- जोर से डांट रही होती हैं।”बेशर्म शर्म -लिहाज ना है तोरा हमरा बिटवा के त खाईये गले।अभियो कोनो शरम-लिहाज न हऊ तोरा।कोनो देख लेलई बाहर त की कहतई की अपन भतार के त खाईये गेलई,अब दोसर पर ताक-झाक करई छई।नाक-कान कटा के छोडिहे।जो भीतर,बड़ा अएलन होली देखे बला।”  प्रिया ने भूमि से पूछा ये  ऐसा क्यों बोल रही हैं? इसमें उनकी बहू की क्या गलती। इससे ज्यादा दुखी कौन होगा ?इन्होंने तो अपना पति खोया है। लोगों से मिलेंगी,तो इनका दुख दर्द कम होगा ।यह लोग इनकी शादी क्यों नहीं कर देते? ऐसे तो यह घुट -घुट कर मर ही जायेंगी।भूमि बोली जाने दो हमें क्या। गांव में आज भी यही होता है ,पति के मरने के बाद औरतें बाहर की दुनिया नहीं देख सकती।प्रिया उदास हो गई। घूमते -घूमते जब शाम हो गई तो उसने देखा हूल्लर लड़कों की टोली धमाल मचा रही थी।सभी पूरी तरह रंगे हुए थे। किसी के चेहरे पहचान नहीं आ रहे थे ।तभी सब की पहचान कराते हुए सीमा की ही मां बोली “ऊ देखो ललुआ को, बेचारी की कनिया पिछले महीने मर गईल रहे। लेकिन देख बेचारा कितना जल्दी अपना आप के संभाल के बाल-बच्चा, घर -परिवार के खातिर सबसे हिलमिल रहल हई। आखिर बाहर के दुनिया में घुलतई- मिलतई तबे न मन बहलतई । घर में रहईत रहईत  आदमी मरिए जतई।ललुआ के माई जल्दी से कौनो सुंदर लड़की देखके एकर घर बसा द।एकडो  जिंदगी सवर जतई। ललुआ की मां भी हां में हां मिला रही थी। प्रिया को काटो तो खून नहीं। वह  मूर्तवत  सामाजिक भेदभाव को महसूस कर रही थी।

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