टूटता रहा बदन उसने उफ़ तलक न की,,
उसकी रगो में बहता था ईमानदारी का लहू,,
दो जून की रोटी बस उसकी ख्वाइश थी,,
वो गुलाब भी बन सकता था मगर बना केवल गेहूं,,
जितनी सिद्दत से रूठी महबूबा को मनाने को महंगे उपहार लाते हो,,
उससे आधी सिद्दत से भी अगर
एक भी फुटपाथ पे सोनेवालों के लिय छत बनाओ,,,
तो नवनिर्माण संभव है,,,