न वो इकरार करती है,
न वो इनकार करती है।
निगाहें भले फेर लेती है,
मगर वो प्यार करती है।
उसे तो सादगी ने बनाया,
जैसे हुस्न का दरिया,
मुझे ही सोच कर ही वो,
अक्सर श्रृंगार करती है।
लश्कारे लौंग के उसके,
हैं करते राह को धुंधला।
जुल्फें बिखरा करके वो,
नज़र से वार करती है।
तमन्ना है एक बस की,
उतर जाऊं रूह में उसकी।
वो तो जान लेने को,
मगर मेरी तैयार बैठी है।
हमें फिर भी यकीं है,
वफा ए चाह पे उसकी।
जबकि बागों में वो अपने,
गुल लगाए हजार बैठी है।
रजनी प्रभा