इंसानियत जिंदा है,पर..

इंसानियत जिंदा है,पर..

          इंसानियत जिंदा है,पर..

हरप्रीत सिंह,अभी-अभी अपना ऑटो लेकर घर वापस आया था। रात के तकरीबन 10:30 बज रहे थे।हल्की बूंदाबांदी होने की वजह से,मौसम खराब हो रहा था।शायद इसी वजह से उसे वापस आना पड़ा, वरना वो कुछ देर और ऑटो चलाना चाहता था। लेकिन रब का सच्चा सेवक होने के नाते,सबर और संतोष का घूंट पीकर,उसका शुकराना करते हुए अरदास की-
 "ए सच्चे पातशाह..तेरा शुक्र है मालका!तूने जो दिया सर आंखों पर दाता,सबको अपनी दात बक्शो,हे दातार.."
    ऑटो पर स्थापित,दसों गुरुओं की तस्वीर को माथा टेका और दरवाजा बंद कर,अपने घर के अंदर आ गए।
   हरप्रीत सिंह..साठ- पैंसठ साल का,सिक्खी को मानने वाला सच्चा गुरु का सिक्ख था।वाहेगुरु के हर हुकुम को मानने वाला..धर्म परायण,परोपकारी,मृदु हृदय वाला व्यक्तित्व रखता था। परिवार में पत्नी और दो बेटियों के अलावा और कोई नहीं था।बेटियों का विवाह कर चुका था,और ख़ुद अपनी पत्नी संग जीवन यापन कर रहा था।सवारी ऑटो ही उसकी जीविका का आधार था।
 "सिमरन..वक्त बहुत हो गया है,भूख भी बड़ी तेज लगी है।जरा जल्दी भोजन परोसो।मैं तब तक हाथ मुहा धो कर आता हूं।"
   सिमरन उसकी पत्नी का नाम था।
  "जी अच्छा.."- पत्नी ने जवाब दिया।
 हाथ पांव धोकर हरप्रीत बिस्तर पर बैठ गया,जहां सिमरन ने उसे खाना परोस दिया।

हरप्रीत ने हाथ जोड़कर ईश्वर का शुक्र अदा किया और रोटी का निवाला बनाकर,जैसे ही खाने को हाथ बढ़ाया के,किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। उसने निवाले को थाली में रखा और पत्नी की ओर देखकर बोला-
“इस वक्त..इतनी रात को कौन आ गया!जरा देखीं सिमरने..”
पत्नी ने दरवाजा खोला,तो सामने अमृतपाल खड़ा था।
“चाची..चाचा कित्थे है..”घबराए हुए अमृतपाल ने पूछा।
“की गल्ल है..पुत्तर! तू इतना घबराया क्यों है?”
“चाची..आपको पता है भाभी उम्मीद से है।आज उसे दर्द शुरू हो गया है।कमला दाई को दिखाया,तो उन्होंने अस्पताल जाने का सुझाव दिया।बारिश की वजह से कोई साधन भी नहीं मिल पा रहा।इसलिए चाचा के पास आया हूं,ताकि उनके ऑटो में भाभी को अस्पताल पहुंचा सकूं।” अमृतपाल ने कहा।
“लेकिन,वो तो अभी भोजन कर रहे हैं।वह अभी कहीं नहीं जा सकते..” सिमरन ने अभी इतना कहा ही था कि,पीछे से हरप्रीत ने उसे टोकते हुए कहा-
“कोई बात नहीं पुत्तर..तू जाकर अस्पताल चलने की तैयारी कर,मैं दस्तार (छोटी पगड़ी) बांध कर,ऑटो लेके आता हूं।”
उसके जाते ही सिमरन बोली- “पर पहले खाना तो खा लेते..”
“नहीं सिमरन..मैं भूख बर्दाश्त कर सकता हूं,पर जरा सोचो वह दर्द जो बच्ची को हो रहा होगा,मेरी भूख से कई गुना अधिक कष्टकारी होगा! और फिर सच्चे पातशाह वाहेगुरु ने सेवा का मौका दिया है..तो ऐसे ही थोड़े जाने दूंगा!बस थोड़ी ही देर में वापस आ कर खा लूंगा..।”- कहते हुए हरप्रीत तैयार होने लगे।

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *