इश्क का सच (कविता)

इश्क का सच (कविता)

जिनसे मोहब्बत नहीं, उनसे निभाए भी तो कैसे,
नादान उसके दिल को समझाएं भी तो कैसे?

 जान देता है मुझ पर, ये जानती हूं मैं,
अब यह जानकर उसको सताए भी तो कैसे?

जो खुद तैयार है छोड़ने को इश्क में  दुनिया,
उसे भला हम अब आजमाएं भी तो कैसे?

अजी! मुमकिन नहीं है दूर तलक  साथ उसका मेरा,
साथ उसके सौ जन्म निभाएं भी तो कैसे?

जीना है हमको छोड़कर अब अरमान सारे दिल के,
बेपनाह उसके इश्क को दफनाएं भी तो कैसे?

रजनी प्रभा

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