जैन धर्म को कैसे सुरक्षित रखे

जैन धर्म को कैसे सुरक्षित रखे

विषय आमंत्रित रचना – जैन धर्म को कैसे सुरक्षित रखे
भौतिक चकाचौंध के इस युग में कोई भी किसी भी धर्म का हो वह अछूता नहीं है । चकाचौंध में सब रम गये है । अब यह प्रश्न उठना सही है की हम जैन धर्म को कैसे , कहाँ व कब तक आदि सुरक्षित रख सकते है । मैंने देखा , समझा , अनुभव किया है की
तत्व ज्ञान की जानकारी वाले सीमित रह गये है । यह सिमितता
यह दिखला रही है की धर्म के प्रति विशेष रुचि व लगाव आदि
कम हो रहा है । अध्यात्म जगत के दिनकर, मनीषा के शिखर पुरुष,प्रज्ञा के निर्झर,तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवे आचार्य श्री महाश्रमण जी व अन्य पाँच महाव्रत धारी साधु – साध्वियाँ प्रवचन , सार – सँभाल व क्षेत्रों में अहिंसा यात्रा आदि के माध्यम से धर्म के प्रति मूल आस्था को सब जगह मजबूत करने में सतत् प्रयत्नशील हैं। उपासक , उपासिकाये आदि भी अपना योगभूत योगदान प्रदान कर रही है । किसी ने कहा की – अंनेकांत है निर्मल दर्पण, श्रद्धामय हो अगर समर्पण । परम सत्य बिंबित हो जाता, भावों का पाकर स्पंदन । जैन दर्श का सम्यक् दर्शन ।ज्ञात अल्प, अज्ञात अनन्त है, वीतराग पथ अति दुरंत है । मुक्ति पथ का द्वार खोलता, साम्यबोध से आप्लावित मन। जैन दर्शन का सम्यक् दर्शन । सूक्ष्म सत्य अहेतुगम्य है, तर्क, युक्ति भी तो प्रणम्य है । यह मिलता है नवनीत तभी जब, पूर्वाग्रह से मुक्त विमर्शन। जैन दर्शन का सम्यक् दर्शन । योग जहाँ निश्चित वियोग है, त्याग धर्म, अधर्म भोग है । हिंसा तीन काल मे हिंसा, शाश्वत है ये सत् दिग् दर्शन । जैन दर्शन का सम्यक् दर्शन ।जङ-चेतन से निर्मित सृष्टि, होती जब करूणा की वृष्टि । समता, सहअस्तित्व समन्वय, उपादेय सारे स्पन्दन । जैन दर्शन का सम्यक् दर्शन । सचमुच यह सब हमारे ध्यान में रहे निरन्तर तो मैं कह सकता हूँ की जैन धर्म से विमुख होने का मन कभी कहेगा ही नहीं । आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी व वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने केवल जैन धर्म के अनुयायीयों के लिए नही वरन् समूचे विश्व उत्थान को अपने विचारों का अमृत प्रदान किया व कर रहे है । दिन-दुःखी को वाणी प्रदान कर करुणा-संवेदना के हिमायती रहे हैं । आज जिसके मन में संवेदना है करुणा भाव है उसकी नौली में निन्यानबे रुपये हैं और उसके विपरीत जो हर तरह से सम्पन्न है पर कृपण, करुणाहीन है तो उसकी नौली में एक रूपैया है निन्नयानबे बाक़ी हैं । इंसान संवेदना का जीता जागता प्रतीक हैं । हम जैनी प्राणी मात्र के प्रति दया एवं करुणा का भाव रखते है यह विश्वप्रसिद्ध है की हम एक चींटी को भी नही मारते ऐसे में अमानवीय कृत्य शर्मनाक है । केवल और केवल उस जीवन देने वाले के अलावा किसी को अधिकार नही किसी निरपराध प्राणी की हत्या करे या उसे दुःख पहुँचाये । भगवान नेमिनाथ – करुणा के अथाह सागर थे । पशुओं की करूण पुकार सुन राजुल से सात जन्मों की प्रीत तोड़ कर्म काटने गढ़-गिरनार गये वहाँ भवपार किया । इंसान की प्रकृति की महानता उसकी संवेदना ही है किसी को लूटने से पहले,तड़पाने से पहले,सताने से पहले आदि हम कर्मों की मार से डरे । अभिमान हमें पतन की ओर ले जाता है ।इसलिये हम कभी न करें घमंड, पद का कुल का और ज्ञान आदि का । विनय से विकास शील मानव होता है । विनय से ही विद्या शोभित होती हैं । उद्दंडता , पारस्परिक कलह होता जिस परिवार में वहां हमेशा अशांति का वास होता है । अशांति के कारण आवेश और अविश्वास भी है । इसके विपरीत जैन धर्म का मर्म समझकर जो रहते अहंकार आवेश से सदैव दूर उनके जीवन में शांति भरपूर हो सकती हैं । निरहंकारिता है सदैव कल्याणकारी। विनय मूल जैन धर्म है मंगलकारी।किसी ने सही कहा है की ज्ञानी कहते समय है गुरु। वह हमें सब कुछ सिखलाता है ।जिससे सीखा एक भी गुर वह भी हमारा गुरु कहलाता है । मैं मानता हुँ की सच्चे गुरु वह है जो जीवन के विज्ञाता , राग-द्वेष और कषाय विजय आदि का हमें सही मार्ग दिखलाते है । जो रास्ता परम लक्ष्य की और अग्रसर है वह मंजिल मोक्ष हमारी है ।हम हैं परम सौभाग्य शाली पाया हमने जैन धर्म महान है । आर्य भिक्षु ने हमें मार्ग बताया ।गुरु तुलसी का वरद हाथ हमने पाया है । महाप्रज्ञ से प्रज्ञा पुरुष की मिली हमको छत्र छाया है । महाश्रमण से महातपस्वी गुरु को वर्तमान में हमने पाया है । सद्गुरु ज्ञान भंडार , गुरु की महिमा अपरम्पार ।एक जीभ से गाई न जाय महिमा गुरु बिन सूना संसार । कैसे पहुंचे हम भव पार । वे ही करेंगे हमारा बेड़ा पार । गुरुवर दो हमको ऐसा वरदान- मिल जाये हमको शक्ति तुम्हारी, शक्ति तुम्हारी प्रभु भक्ति तुम्हारी, युक्ति, मुक्ति पथ वारी ।जय – जय गुरु महान।जय – जय महाश्रमण पुण्यवान । जय -जय महाश्रमण भगवान ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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