जीवन के दो संजीवन

जीवन के दो संजीवन


जीवन में सद्गुण वह जागीर है जो हर किसी में हर कहीं पर पाई नहीं जाती हैं । ये वो अनमोल निधि हैं जो किसी के द्वारा चुराई तक नहीं जाती हैं । यदि यह निधि हमने पा ली और क़ीमत इसकी आँक ली तो खोई भी नहीं जाती हैं । जिनमें समता , क्षमता , सरलता, मृदुता,स्नेहशीलता-सहनशीलता- सेवा-सहयोग , अपार संभावनाओं आदि सद्भावों की सरिता बहती हैं ।ऐसी सुविशिष्टतायें ही चरित्र की सुंदरता कहलाती हैं । ये क्रय-विक्रय के माध्यम नहीं हैं । हम इनको केवल पठन से ही नही पा सकते हैं ।ये सद्गुण तो स्वतः अपने आप में विकसित करने के साधन हैं ।विरल और दुर्लभ हैं तभी तक जब तक मन सबल नहीं हैं ।जिस दिन इनको सुफल विकसित करने को सही से हम समझेंगे तो हमारा दिल भी निश्चित ही दौड़ेगा ।ऐसे गुणों के विकास के लिए केवल पढ़ना-समझना-देखना और सुनना आदि ही पर्याप्त योग नहीं है । यह फलदायी तभी हैं जब सब कुछ व्यवहार और आचरण में इनका प्रयोग होता है । जिस दिन ऐसे सद्व्यवहार की वृत्ति हो जायेगी जीवन में असीम आनन्द की सरिता बहेगी ।यह हर मनुष्य के ऊपर निर्भर है कि उसमें से वह घड़ा भर ले और समृद्धि प्राप्त कर ले या बैठा रहे अनमना मन से रीता।अहंकार रहित मानसिक सुख की अनुभूति तक तो प्रशंसा की भूख सही सोच की परिचायक हैं पर जो काम प्रशंसा के लायक नहीं है उस पर भी प्रशंसा की भूख ओछी सोच की परिचायक है । हमारा जीवन भी संतुलन व पचाने के अनुसार जूड़ा है। अगर हम भूख से ज़्यादा खाते हैं तो अपच होने का डर रहता और कम खाते हैं तो शारीरिक शक्ति क्षीण होने की सम्भावना रहती है । ठीक इसी तरह कोई प्रशंसा न पचा पाये तो आदमी फूल कर कुप्पा हो जाता है और बार-बार वाह – वाह उसे चाहने लगता है तथा उसका अहं शीर्ष पर चढ़ जाता है । इसलिए कहते हैं चाहे कोई कार्य क्षेत्र हो हमने अपने जीवन में हर जगह संतुलन अपना लिया हैं तो हमारा जीवन भी अपने आप हमेशा आनंदित रहेगा ।
प्रदीप छाजेड़

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