खुश दिखने की होड़

खुश दिखने की होड़


आजकल के चलन के हिसाब से लोग बाहरी रूप में तो खुश दिख रहे है लेकिन भीतर में वो अलग ही चला रहे होते है । ऐसा क्यों ? इसमें कैसे आया इतना विरोधाभास ? इसका मूल कारण हैं मेरे चिन्तन से मानव कि और – और की अन्धी होड़ । मन और मस्तिष्क में ऐसे घोड़े है जो बेलगाम दौड़ते जाते है।जब भी मन कुछ कहता है तो दिल कुछ चाहता है दिमाग कुछ सोचता है तो पेट कुछ मांगता है और तो और विचार कुछ उठते हैं ज़ुबाँ कुछ कह जाती है ।कभी कभी तो ज़मीर सच बोलता है काम कुछ और कर जाते हैं ।कहीं हाथ चल जाते हैं कहीं पांव चल देते हैं ये विचारों की भीड़ कहाँ कैसे ? कैसे? कितना सामंजस्य रखे? प्राप्त ही पर्याप्त है को वो भूल गया है जबकि सही में वही सुख होता हैं । आज के समय में चिंताओं के घेरे में हमारा जीवन बह रहा है । व्यर्थ के तनावों में जन-मन घिरा है ।समता और सन्तुष्टि जैसे शब्द मानो अब हमारे से जीवन पराये हो गए हैं ।फलत: सुकून और शान्ति भी अब दूर कहीं खो गए हैं ।ऐसे में है आध्यात्म का ही सहारा है ।इसमें छिपा असीम सुख का आसरा हैं ।प्राप्त में पर्याप्त हमें मानना है । इस सूत्र में अनमोल सुख का ख़ज़ाना समाया है यह हमें जानना है । सम-विषम परिस्थिति में समता को हमें धारना है । और सारी मनोविकृतियों को चुन-चुन के मारना है ।नन्ही सी ज़िन्दगी के एक-एक पल को हमें सुकर्मों से सजाना है ।धर्म के मर्म को सही से समझ खुशियों को जीवन में भरना है ।
प्रदीप छाजेड़

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