माँ

माँ

कौन कहता है कि जन्नत आसमां के उस पार होता है,
जन्नत की खुशियाँ तो माँ के चरणों में अपरंपार होता है।

उस जन्नत में तो सिर्फ जिन्दगी के बाद खुशियाँ मिलती हैं,
इस जन्नत में जिन्दगी के साथ खुशियाँ मिलती हैं।

वो जन्नत एक मीठी सी कल्पना और भ्रम है,
पर माँ का आँचल हर एक के खातिर आश्रम है।

उस जन्नत में तो सिर्फ मर कर जा सकते हैं,
लेकिन इस जन्नत में सिर्फ और सिर्फ जिन्दगी पा सकते हैं।

माँ एक ऐसा शब्द है जिससे पूरी संसार ढक सकती है,
हम पर आने वाली हर बला को हमसे झटक सकती है।

अलंकृत कैसे करूँ माँ को, वो तो खुद एक अलंकार है,
ऐसी उपाधि हीं नहीं उनके लिए, जिनसे ये पूरा संसार है।

माँ सबकी संरक्षक है, पालक है, और ममता की मूरत है,
जन्म और निवाला देने वाली, सबसे प्यारी वो सूरत है।

माँ जीवन की पहली पाठशाला, माँ सरस्वती का रुप है,
क्रोधित हो जाये कभी अगर, माँ काली की अटल स्वरूप है।

माँ हीं जन्मदाता, आदि-शक्ति और धैर्य की सर्वोच्च मिशाल है,
प्रकृति की अनुपम भेंट माँ, कण-कण इस ईश्वर पर निहाल है।

संसार चुकाना चाहे कभी अगर माँ के ये अनगिनत उपकार,
अर्पित तन-मन-धन कर दे फिर भी, ना चुकेगा माँ का प्यार,
माँ से ही ये सृष्टि अनवरत, ईश्वर को भी माँ ने ही जन्म दिया,
माँ से ममता-मानवता, माँ से ही हर जीव के सभ्यता-संस्कार।

माँ तुम कुछ और नहीं, अद्वितीय, अतुलनीय बस माँ हो,
हमारे उम्र से भी अधिक हमें जानने वाली, हमारी पूरी जहाँ हो,
तुम्हारा ना आदि है, ना अंत सुनिश्चित,हो तुम सृष्टि-प्रकृति-भूमि,
ब्रह्माण्ड में जहाँ भी जीवन है, आदि काल से तुम वहाँ हो।

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