मैं,कलाकार हूं
खुद का हूं आइना,खुद से हूं रूबरू
खुद के ही रंग भरूं
मैं तो साकार हूं
मैं कलाकार हूं
खेलता हूं मैं रोज़
रंग से,नूर से
पर मुझे अलविदा
कह रहे वो दूर से
रौशनी भी नहीं,कोई रंगत नही
चाहिए क्यों मेरी इनको संगत नहीं
मैने सुर से कहा
तू है यार मेरा
रंग से मिल गले
दिया प्यार मेरा
साज छूकर के
बांधा समा ये खुशनुमा
और कलम को पकड़
लिखा फलसफा नया
लगता है सब मेरा
फिर भी बेकार हूं
मैं कलाकार हूं
मैं जमीं से जुड़ा
मैं जमीं से उठा
जाने कौन सा जुनूँ
मेरे सर पे चढ़ा
दम है मुझ में भरा
ये दिखा दूंगा मैं
वक्त है बदलता
ये बता दूंगा मैं
मैं भी आकाश में
नाम लिख जाऊंगा
आंख बंद हो भले
फिर भी दिख जाऊंगा
मैं नए गीत और
सुर सजा जाऊंगा
साज के तार देखना
बजा जाऊंगा
रंग बिखराऊंगा
मैं कला के मेरी
कोई कुछ भी कहे
बला से मेरी
मैं खुद में ही
एक अनंत संसार हूं
मैं कलाकार हूं
मैने देखें हैं दिन
मुफलिसी से भरे
आंख नम थी मेरी
और जख्म थे हरे
मेरी कारीगरी
सबको लगती बुरी
थे खिलाफ सब मेरे
सब आशाएं मरी
मैने नाचा तो सब
मुझे हंसने लगे
मैने गाया तो
ताने भी कसने लगे
मेरी रचनाओं को
सबने दुत्कार दिया
मेरी गजलों को
सिरे से नकार दिया
मैने सच जो किया
सबके आगे बयां
मुझको ताकत से अपनी
धमका दिया
फिर मैं ना झुका
ना ही टूटा ज़रा
मेरी सच्चाई ने
मुझमें हौंसला भरा
मैने माना कि मैं
सच की तलवार हूं
मैं कलाकार हूं
डॉ विनोद कुमार शकुचंद्र