मेरे मन में वहम एक – डॉ. कवि कुमार निर्मल

मेरे मन में वहम एक – डॉ. कवि कुमार निर्मल

मेरे मन में वहम एक, आज आया है‌।
रिश्तों का माहाजाल जरा गहराया है।।

जन्म दिया जिसने, पहला दोस्त उसे बनाया है।
बाबा गोदी उठा-खिलाए, दोस्त बहुत भाया है।।

प्यारी बहन ने रक्षा बंधन बाँध, दोस्ती बड़ाया है।
सखा बन छत-सड़कों पर साथ पतंग उड़ाया है।।

शंख-झाल ध्वनि गुँजायमान्, प्रभु में नेह लगाया है।
लता- गुल्म- वृक्षों से भी पुरजोर रिश्ता निभाया है।।

तब क्यों (?) मित्रता, दिवस सालाना, मनाया है।
दोस्ती माँ की कोख से, गर्भस्थ शीशु समझता है।।

महफ़ूज माँ के आंचल में, पलता-पुसता है।
बड़ा होने के साथ, दोस्ती भूल विलगता है।।

अंतिम विदाई के समय वह, अश्क बहाए जाता है।
हमसफर बन वह,  दर्दे-दिल सारा पी, हंसाता  है।।

मुस्कुराहट बाँट, साथ निभा अहबाब कहलाता है।
हर कदम आजू-बाजू साया बन, रिस्ता निभाए है।।

जिंदगी मौत का मातम, क्यों (?) मनाती है।
मौत है कि मर के भी, अपनों को सताती है।।

महरम बनाई कारगर, जख़्म खोजते  नहीं मिला।
गर्दिशों को सहा इतना, अजिब़ो-गरीब दी सिला।।

डॉ. कवि कुमार निर्मल

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