जिंदगी के आश की लौ जब बुझने लगी थी,
तब बनके मसीहा तू मेरे पास खड़ा था।
एक तरफ थी मौत,लेके जाने को मुझे,
लेजा मुझे तू अपनी जिद पे अड़ा था।
हर ख्वाइश पूरी करता रहा मेरी तू,
जबकि कायदे से तो मैं तुझसे बड़ा था।
तेरा_मेरा मिलना कोई दस्तूर ए मिजाज नहीं,
मुझे पाने को तो तू जमाने से लड़ा था।
नहीं चाह अब ’रजनी’को नाम ओ शोहरत की,
कुदरत ने सबसे कीमती नगीना मेरे भाग्य में जड़ा था।
कैसे टूटती जमाने की कोशिशों से दोस्ती अपनी,
हम दोनों के हाथों में तो मजबूत कड़ा था।
रजनी प्रभा