सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के ऋग्वेद , पुराणों एवं उपनिषदों में माता शक्ति के नौ रूप में प्रथम स्वरूप में माता शैलपुत्री का उल्लेख हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सृष्टि के प्रथम दिवस पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को पर्वतराज हिमालय की भार्या मैना की पुत्री माता शैलपुत्री का प्राकट्य हुई है । नवरात्र-पूजन में प्रथम दिन की उपासना में धैर्य और शक्ति की देवी माता शैलपुत्री की ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित कर योग साधना का प्रारंभ करते है। हिमालय , कैलाश पर निवास करने वाली एवं भगवान शिव की जीवन साथी एवं हिमालय की पुत्री माता शैलपुत्री की सवारी वृषभ , अस्त्र त्रिशूल , कमल है ।माता शैलपुत्री का मंत्र ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥ वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम | वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम् || देवी सर्वभूतेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।। अर्थात वृषभ-स्थित शैलपुत्री माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। प्रजापति दक्ष की कन्या ‘माता सती’ का विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। प्रजापति दक्ष ने उत्तराखंड के हरिद्वार के समीप कनखल में आयोजित यज्ञ में देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया,परंतु भगवान शिव को यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया गया था । माता सती ने जब सुना कि उनके पिता दक्ष यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।’ भगवान शिव के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात नही मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह नहीं कर सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में हिमालय की पुत्री के रूप में शैलपुत्री जन्म लिया। इस बार वे ‘शैलपुत्री को पार्वती, हैमवती नाम हैं। उपनिषद् के अनुसार माता ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।’शैलपुत्री’ देवी का विवाह भगवान शिव से हुआ माता सती की प्रथम अवतार एवं नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं। उत्तरप्रदेश के वाराणसी एवं काशी के मध्य अवस्थित वरुणा नदी के तट पर अलईपुरा का मढ़िया घाट शैलपुत्री मंदिर के गर्भगृह में माता शैलपुत्री अवस्थित है । छत्तीसगढ़ का रतनपुर स्थित महामाया मंदिर परिसर में शैलपुत्री मंदिर , महाराष्ट्र का वसई विरार में हैदाबदे , जम्मू कश्मीर के बारामूला की गुफा में माता शैलपुत्री , विधूना , अमिय धाम ,गुड़गांव ,झंडेवालान मंदिर , हिमाचल प्रदेश में नैना मंदिर ,छिंदवाड़ा का आमी मंदिर शक्ति और धैर्य की देवी माता शैलपुत्री को समर्पित है । शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न ग्रंथों में देवी भागवत , मार्कण्डेय पुराण , ऋग्वेद के अनुसार माता शैलपुत्री को भवानी , हेमवती ,गिरिजा , पार्वती कहा गया है । हिमवान की पत्नी मैना देवी की पुत्री पार्वती , गंगा एवं पुत्र मेनाक है । राजा दक्ष की पुत्री स्वधा का विवाह पितृदेव पितरेश्वर से होने के के बाद स्वधा की पुत्री मैना ,धन्या ,कलावती का अवतरण हुआ था । मैना का विवाह हिमवान से होने के बाद माता शैलपुत्री का अवतरण हुई थी ।
