पुरुष (कविता)

पुरुष (कविता)

कि उसने कभी देखा नहीं
बारिश,धूप,सर्दी या बीमारी
तत्पर रहा उस शक्स के लिय,
जहां उसे लगी थोड़ी सी भी जरूरत मदद की।

न सोंचा कभी अपनापराया, ऊंचनीच।
जाती_धर्म और राजनीति से पड़े,
उसने की सेवा केवल मानव मात्र की।
रहकर अपनी जड़ से भी दूर,
किया सभी के हृदय में वास।
विश्व बंधुत्व की भावना से ओत_प्रोत,
हुआ उसका स्वरूप विस्तार।

आखिर क्या चाहता है एक पुरुष?
दो वक्त की रोटि,एक छत,
बच्चों की शिक्षा और नि:स्वार्थ प्रेम।
इस छोटी सी ख्वाहिश में कितना कुछ छूटता जाता है उसका?

भटकता रहता देश_परदेश,
तलाश में एक मुकम्मल सुरक्षा के,
जिसके छांव तले वो छोड़ सके अपने बीवी_ बच्चों को,
पूरी कर सके बाबूजी के सपने,
करा सके मां को चार धाम की यात्रा,
दे सके बहनों को मायके में सम्मान,
और बांट ले भाई का सारा दुख।

इन्हीं हसरतों को दिल में दबाए
छूटता जाता है वो अपनी जड़ से,
और घिर जाता है शहरी मोहपाश में।
फिर बाबूजी के टूटे सपने,
मां ने की केवल कुलदेवी की पूजा,
बहनों ने त्यागा अपना हक,
और भाई ने दबाई अपनी पीड़ा,
क्योंकि अब वो, वो नहीं रहा।

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