
समझवला के बात रहे
का समझीं आ ना समझीं।
बाउर आ नीमन समझीं।
फरके या जाके समझी।
केहू के बोला समझीं।
समझ समझ के फेरा बा।
निसदिन नया बखेड़ा बा।
जेने ताकीं घेरा बा।
अलगे डंटा डेरा बा।
ज्ञानी नित समझावेलें।
जीवन राह दिखावेलें।
अज्ञानी फुसलावेला।
डेरावे धमकावेला।
समझावल भी एक कला,
समझला से होला भला।
बिरले हीं समझावेले।
निसदिन आग लगावेले।
समझवला से रागी जन,
सुनते बोली दागी जन।
सोंची समझीं काम करीं।
देखीं राउर ज्ञान बढ़ीं।
समझ समझ के बात रहे,
जइसन भी हालात रहे,
दिन या चाहे रात रहे,
समझवला के बात रहे।
स्वरचित
अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड