संग तकिए के नीचे रात रात भर ,
धूं धूं करके फफक पड़े थे आंगन में ।
कई ख़्वाब जले थे कहीं रात भर आंगन में ।
बीच बीच में रौशन होकर जुगनू भी,
कितनी राख हुई है देख लिया करते थे ।
आँखों से टप टप गिरते शबनम से मोती ,
ख्वाबों का गीलापन देख लिया करते थे ।
आग कहीं से बुझ जाए ,
बादल कोशिश करते जाते थे ।
लेकिन दूर कहीं से जज़्बाती तारे ,
घी उसमें डाले ही जाते थे ।
चंदा टप टप पिघल टपकता जाता था
इधर ख़्वाब तोड़ते अपना दम जाते थे ।
रात का अन्तिम पहर अभी सोया ही था,
करवट लेकर ख़्वाब मगर जलते जाते थे ।
धीरे धीरे रात सिमटती रही रात भर ,
ख़्वाब तन्हा ज़िंदा मरते रहे रात भर आंगन में
कई ख़्वाब जले थे कहीं रात भर आंगन में ।
पौ फटने वाली थी,
ख़्वाब सभी बन राख अभी तक सोए थे ।
एक चिंगारी लेकिन अभी बची थी,
सूरज को फिर आग लगाने को सोचे थे ।
दिन अंगड़ाई ले बढ़ता जाता था ,
ख़्वाब नया फिर कहीं आँख में चढ़ता जाता था ।
लेकिन उनमें मिस्री सी अब,
कोई मिठास नहीं थी ,
चुभन नई थी ,पर ऐसा न,
कि पहचान नहीं थी ।
तपता सूरज ख़्वाब सेकता दिन भर
और
उमस भरी गर्मी में ख़्वाब निचोड़े तो,
मुट्ठी भर खारा नमक मिला था आंखों में ,
कई ख़्वाब जले थे कहीं रात भर आंगन में ।
@आलोक सिंह गुमशुदा