सज़ा (लघुकथा)

सज़ा (लघुकथा)

कौओं कि कांव-कांव सड़कों पर बढ़ी हलचल और किवाड़ से आती रोशनी से जब मनु की आंखें खुली तो मनु को आश्चर्य हुआ। अभी तक तो मां नहा_ धोकर अपने चंद्रशेखर महादेव को जल चढ़ाकर रसोई में जुट जाती थीं।और फिर पकवानों की खुशबू से उसे उठना पड़ता था।मनु दौड़ते हुए मां के कमरे में गया। मां बिस्तर में पड़ी कराह रही थी। उन्हें तेज ज्वर था।
मनु ने गांव के वैद्य जी को बुलाया। वैद्य जी ने शहर जा कर दिखाने की सलाह दी। मां शहर जाना नहीं चाहती थीं। कारण सबको पता था। वहां पिताजी किसी पराई स्त्री के साथ रहते थें।मनु के आग्रह पर मां जाने के लिए राजी हो गई।पिताजी को खबर गई, परंतु वे नहीं आए।पैसे के अभाव में मनु अपनी मां का इलाज अच्छे से न करा सका।
गोदान हो रहा था।मां आखिरी सांसें गिन रही थीं। तभी पिताजी आते हैं। मां मुंह फेर लेती है। लड़खड़ाती आवाज में मनु से रुक_रुक कर कहती है, ”सुन मनुआ, कह देती हूं, मेरे मरने के बाद इस इंसान से मुझे मुखाग्नि ना दिलाना वरना मर्दों को फिर से सह मिल जाएगी कि वह कोई भी गलती करेगा और आखिर में औरत उसे माफ तो कर ही देगी। मैं नहीं चाहती, जो कुछ भी मैंने सहा है वो किसी और औरत को भी सहना पड़े,इसीलिए मैं इसे माफ नहीं करूंगी और यही इस इंसान की सजा है।”
कहने के साथ ही मां की पलकें मुंद गई। वह हम सब को छोड़कर परमधाम को जा चुकी थीं। मनु कभी मृत मां को देखता तो कभी दोषी पिता को।

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