शहाब

शहाब

’शहाब’ ने बिखेरा अपना नूर, तो रौशन हुआ जोड़ा,
फिर रुखसत हुआ जालिम, किसी और के डेरा।

अपनी रंगत लूटा दी,दीवानेपन में उस पर,
पागलपन देख पूछता, तू कौन है मेरा।

अब उबरने की चाह ए हसरत नहीं उसे,
वहीं डूब मरना चाहता,जिस गम ने उसे घेरा।

दर्द इस कदर उतर गया रूह में,
फट जायेगा ज्वालामुखी गर किसी ने उसे उकेरा।

ख्वाहिश थी ’शहाब’ की मुक्कमल जहां मिले इश्क में,
राहें धुंधली हुई और गुमनामी में हुआ बसेरा।

रजनी प्रभा

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