Posted inpoetry समय की मांग (श्रमिक) टूटता रहा बदन उसने उफ़ तलक न की,, उसकी रगो में बहता था ईमानदारी का लहू,, दो जून की रोटी बस उसकी ख्वाइश थी,, वो गुलाब भी बन सकता था मगर बना केवल गेहूं,, Posted by Rajni Prabha March 22, 2022