जो बात तेरी और मेरी थी,
वो बात हमीं तक रह गई।
इश्क़ दबा सीने में और,
नैनों से नदियां बह गई।
चुप थे लब बिलकुल खामोशी में,
ये नजरें लेकिन सब कह गई।
क्या _क्या देखे थे ख़्वाब हमने,
ख्वाहिश वो अधूरी सारी रह गई।
इक प्यास उठी अंबर से फिर,
ये मौजों की रवानी कह गई।
बादल भी बरसते हैं गम में,
तू जाने फिर कैसे रह गई।
तू कोमल है,नाजुक सा बदन,
ये विरह_तपन कैसे सह गई।
व्याकुल मन की ईक्षाओं को,
न जाने तू कैसे तह गई।
ये जनम_जनम के बंधन तू,
प्रीत में मुझसे ऐसे गह गई।
जैसे दिए को अब बाती मिली,
तू जीवन से मोह को मह गई।
रजनी प्रभा