तुम क्या ही जानो मेरे जज्बात

तुम क्या ही जानो मेरे जज्बात

तुम क्या ही जानो मेरे जज्बात,
सुनो! वो है रजनी, मैं प्रभात।
कभी उषा कभी संध्या बीच में,
हो तो हो कैसे हमारी मुलाकात।

जिम्मेदारियों में जकड़ी हुई है,
रिश्तों की डोर पकड़ी हुई है,
खुद से ही वो झगड़ी हुई है,
कह देती है मुझे दिल की बात।
कभी उषा कभी संध्या बीच में,
हो तो हो कैसे हमारी मुलाकात।

छुआ मैंने उसके अंतर्मन को,
जन्मी है वो शिव पूजन को,
समझती है मेरे समर्पण को,
रोती है वो भी सारी सारी रात।
कभी उषा कभी संध्या बीच में,
हो तो हो कैसे हमारी मुलाकात।

सरस्वती की वो पुत्री है अलबेली,
कलम को बनाया अपनी सहेली,
कोई न समझ सके ऐसी है पहेली,
हँसी हँसी में दिखा देती करामात।
कभी उषा कभी संध्या बीच में,
हो तो हो कैसे हमारी मुलाकात।

छुएगी बुलंदियों के शिखर को,
याद रखना मेरे इस जिक्र को,
“विकास” भूलेगा नहीं फिक्र को,
दी थी उसने खुशियों की सौगात।
कभी उषा कभी संध्या बीच में,
हो तो हो कैसे हमारी मुलाकात।

डॉ विकास शर्मा

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *