ओ बसंती बात इतनी सी सुनो,
उल्लास मय हों जाये जग कुछ गुनों।
के देखता हूँ आज कैसा,
नभ में है उल्लास छाया,
लालिमा सी बिखरी हर कहीं है,
तुम बता रही ऋतु राज आया।
भोर कुछ इस तरह हो रहा कि सब शांत है,
समूची प्रकृति एक रस है,
कहाँ कोई भ्रांति है।
यह ऋतु राज बसंत का आगमन है,
मदमस्त हो रही ये पलें भी,
हर कहीं कूकती है,
डाल में बैठ ये कोयले भी।
वागेश्वरी माँ शारदे से हम,
यहीं मांगते है दुआँ,
अज्ञानता का नाश हो,
ज्ञान का हो समाँ।
आओ बसंत संग,
हम सभी भी बसंती सा होलें,
अपने चक्षु पटल से बैरी मन तिलांजलि दें
प्रेममय रस घोलें।
— संतोष सम (श्रीवास्तव)
कांकेर।