ग़ज़ल (हिंदी)-“हलधर”

कैसे कैसे सपने पाले बैठा है ।
जाल मछेरा अब भी डाले बैठा है ।

मछली को मालूम बनूंगी भोजन मैं,
बूढ़ा चावल साथ उबाले बैठा है ।

दीमक लगी नाव दरिया में ले आया ,
फिर भी क्यों पतवार संभाले बैठा है ।

अपने धोती कुर्ते के धब्बे भी गिन,
दूजों की दस्तार उछाले बैठा है ।

तूने उसकी ख़बर लिखी अखबारों में ,
वो भी तुझ पर लिखे रिसाले बैठा है ।

कैसे बने राष्ट्र की गरिमा हिंदी से ,
शिक्षा में अब भी मैकाले बैठा है ।

आरक्षण पर बहस देश में जारी है ,
संविधान तरकीब निकाले बैठा है ।

निर्वाचन में युद्ध छिड़ा है वादों में ,
हर दल अपने लेकर भाले बैठा है ।

गांवों में कोहराम शहर में कुहरा है,
मौसम लेकर रूप निराले बैठा है ।

सरकारों ने कब फसलों की कीमत दी,
प्रश्न हमारा संसद टाले बैठा है ।

लोकतंत्र भी खून गरीबों का पीता,
“हलधर” ले हाथों में छाले बैठा है ।

हलधर

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