ना जाने कब रहमत होगी परवरदिगार की,
तड़प बढ़ती ही जा रही है तुम्हारे दीदार की।
टकटकी लगाए बैठी रहती हूँ मैं दरवाजे पर,
रब जाने कब खत्म होंगी घड़ियां इंतजार की।
“डॉ सुलक्षणा”
ना जाने कब रहमत होगी परवरदिगार की,
तड़प बढ़ती ही जा रही है तुम्हारे दीदार की।
टकटकी लगाए बैठी रहती हूँ मैं दरवाजे पर,
रब जाने कब खत्म होंगी घड़ियां इंतजार की।
“डॉ सुलक्षणा”