मन के मंदिर का वह।
देवता हो गया।।
मेरा जीवन एक सफल।
साधना हो गया।।
कैद जिसने लगाई।
लबों पर मेरे।।
मेरी गीतों की वही।
अदा हो गया।।
मेरी चाहत का था।
यह असर दोस्तों।।
बेवफा शख्स भी।
बावला हो गया।।
याद में जब उन्हीं की।
आंखों को पीली।।
शायद पानी में भी एक।
नशा हो गया।।
पास ठहरो जरा।
अब घड़ी दो घड़ी।।
दूर रहना अब तुमसे।
सजा हो गया।।
स्वरचित रचना
संध्या सिंह, पुणे महाराष्ट्र