मेरे पापा-“संध्या सिंह”

आज भी मेरी यादों में बसते हैं
मेरे पापा।
क्या कहूं कैसे कहूं कैसे थे
मेरे पापा।
सरकारी मुलाजिम नहीं थे
मेरे पापा।
नहीं था उनके पास कोई वहीं
न कोई खाता।
लोगों की सेवा करना
खेतों की रक्षा करना ।
यही था उनको भाता
माना कि एक किसान थे
मेरे पापा।
पर मेरे लिए बहुत बड़े धनवान थे
मेरे पापा।
महीने की 1 तारीख को
भले ही तनख्वाह नहीं था आता
पर हर फरमाइश मेरी
पूरी करना था उनको आता है।
चेहरे को पढ़कर मेरी
हर बात वह जान जाते।
बनाने से पहले लिस्ट
मेरी पूरी वह करके आते ।
काश वही वक्त फिर से
लौट आता।
क्या कहूं कैसे कहूं कैसे थे
मेरे पापा।
आज के वक्त में पति को
लिस्ट देनी पड़ती है।
कब लना कैसे लना
समय भी फिक्स देनी पड़ती है।
सब के लिए करती हूं
पर खुद पर कुछ नहीं हो पाता।
खो गया वह दौर अब
कुछ नहीं हो पाता।
चेहरे को पढ़कर जो हर कमी
कभी पूरी करते थे
मेरे पापा।
आज भी मेरी यादों में बसते हैं
मेरे पापा।
क्या कहूं कैसे कहूं कैसे थे
मेरे पापा।

स्वरचित रचना
संध्या सिंह
पुणे महाराष्ट्र।

1 Comment

  1. Ritu jha

    वाह वाह बेहतरीन अद्भुतम लेखन 👌👌

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