
नैनों से निर्झर बहतें हैं,
सांसों में प्राण संचार है।
है यही रीत वसुधा की,
हां यही तो संसार है।
सबकी नैया बीच भंवर है,
कहां किसी की पार है।
नित नूतन निर्माण कहीं है,
तो कहीं दाह संस्कार है।
इंद्रियों के बस में सारे,
छाया माया का बाजार है।
प्रभु शरण में आजा प्यारे,
होना तभी तेरा उद्धार है।
फिर जैसी करनी,वैसी भरनी,
यही जीवन का सार है।
लूटो जितना लूट सको फिर,
जाना तो कंधे चार है।
रजनी प्रभा
बहुत सुंदर व्याख्या की आपने संसार की