
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।
दीप की संस्कृति आज उज्ज्वल हुई, अब चली जा रही है गहनतम अमा।
हर नगर हर निलय आज रौशन हुआ, हर जगह आज दीपित है एक शमा।
मन हर्षित हुआ, तन है पुलकित हुआ, सप्तरंग सजी है दीया अरु दशा।
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।।
‘राग-दीपक’ अलापित कहीं हो रहा, ये हृदय आज स्वर में कहीं खो रहा!
उठ रही है चहक आज हर द्वार पे, जैसे बाती-दीया का प्रणय हो रहा !
गीत-माला हृदय की महकने लगी, अरु बहकने लगी है हर एक दिशा।
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।।
ये ‘प्रकट-बाह्य-अन्तर-की’ ज्योति जली, जो मन-उत्सवी का सद्व्यवहार है।
है सदा ही सृजन जिस मनुज के हृदय, ऐसे हर्षे-रसिक का व्यापार है।
समशीतोष्ण-जलवायु प्रकृति से मिली, आज उपकृत हुई कार्तिकी-वहनिशा।
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।।
न निरंतर रहा है ‘अंधेरा’ कभी, मिटा इसका सदा ही बसेरा सभी।
सभ्यता सत्य की जब भी होगी खड़ी, ध्वस्त हो जाएगी हर-तमसा तभी।
‘द्वन्द्व’ ये तो सदा से ही चलता रहा, रिक्त कभी न रही है अन्तर-दिशा।
सर्व-दीपक जला हम उजाला किए, दूर होने लगी ये तिमिर, ये निशा।।
🖍️ बृजेश आनन्द राय,
सभी पाठक-मित्रों से निवेदन है कि कृपया अन्तिम कड़ी को आप लोग देखकर उसमें आने वाले शब्दों की विवेचना करें कि सबके समझ में त्रुटि तो नहीं है।👏🌷🌹