बहुत याद आ रही है तुम्हारी
ये बेरुखी तुम्हारी
मुझ पर पड़ रही है भारी
तुम्हारा बात बात पर
वो ‘ओये’ कहना
मेरे कुछ सवालों पर
तुम्हारा चुप रहना
याद आ रहा है मुझे वो पल
जब तुम “बाबा” कहकर पुकारी
ये बेरुखी तुम्हारी
मुझ पर पड़ रही है भारी
मेरी उटपटांग बातों पर
तुम्हारा वो “चुप हो”
मेरी बात मान लेने पर
तुम्हारा कहना “खुश हो”
आँखों के आगे घूम रही
मनमोहिनी सूरत प्यारी
ये बेरुखी तुम्हारी
मुझ पर पड़ रही है भारी
मेरे बेहूदे चुटकुलों पर
तुम्हारा मुंह छिपाकर हँसना
मेरी गोल मोल बातों के
उस जाल में तुम्हारा फँसना
याद आता है तुम्हारा वो “हट” कहना
और मेरी चिपकने की तैयारी
ये बेरुखी तुम्हारी
मुझ पर पड़ रही है भारी
जान ले रही है ये उदासी
छोड़कर नाराजगी मान जाओ
मेरी नादानियों पर फिर से
उसी तरह तुम मुस्कुराओ
जिन्न सेवा में हाजिर है मालकिन
“विकास” ने दिल की बाजी हारी
ये बेरुखी तुम्हारी
मुझ पर पड़ रही है भारी
©® डॉ विकास शर्मा