सजाते रहे हम खुशी ज़िन्दगी की।
मगर साथ दिल की खुदी मिट रही थी।
भला कौन देता खुशी ज़िन्दगी की,
कभी साथ दिल की खुदी ही नहीं थी ।
मुहब्बत सभी की सदा चाहते है,
अगर सोचते तो कहीं क्या कमी थी।
कभी हम मिटाते न संजीदगी को,
मगर इक खुदी बिन कमी ही कमी थी।
लगा था हमें ये भला क्या कमी है,
अभी लग रहा क्या भली बन्दगी थी।
सिखा दो चहल को सजाना खुदी ही
गए वक्त में बस यही छूटती थी।
स्वरचित/मौलिक रचना।
एच. एस. चाहिल। बिलासपुर। (छ.ग.)