टूटता रहा बदन उसने उफ़ तलक न की,,
उसकी रगो में बहता था ईमानदारी का लहू,,
दो जून की रोटी बस उसकी ख्वाइश थी,,
वो गुलाब भी बन सकता था मगर बना केवल गेहूं,,
करकती धूप,
ठिठुरती ठंड,,
झमकती मेघ,,
और खाली घर में,
छूटती जा रही थी उसकी,,
सिहरती भावनाएं,,
ढहते मकान,,
सिसकते बच्चे,,
कराहती बीवी,,
खांसती अम्मा,,
बिनव्याही बहन,,
बेरोजगार बाप,,
और जलती पेट,
को धधकती आक्रोश में
वो भला कैसे झोंक सकता था
तभी तो उसने जुबान के साथ_साथ जेहन में भी ताले जड़ लिए
और बन बैठा केवल श्रमिक,,,,
मगर अब,आज,इस, नई पीढ़ी को ये दासता मंजूर नहीं,,
उसे पता है आज के समय की मांग
कुछ ज्यादा है,,
पुरानी जंजीरों से ,,
मुक्त करना है उसे,
श्रमिक की कराहती ,
पहचान को,,
उसे इनकार नहीं मेहनत से,
मगर इस मेहनत की,
कुल्हाड़ी से नहीं कटने देगा
वो
अपनी भावनाएं,मकान,बच्चे,बीवी,अम्मा,बहन,पिता और पेट को,,
वो उठाएगा आवाज हर जुर्म के खिलाफ,,
वो लड़ेगा हर,धूप,ठंड,बारिश और खाली घर से,,
वो सृजनकार है ,
फिर क्यों सहे ये अत्याचार,,
वो प्रतिकार करेगा,,
हर उस व्यवस्था के खिलाफ़,
जिसने उसकी जड़ों में,,
गोबर भी न पड़ने दी,
और और विदेशी खादों से सींचकर,
दूसरी नस्ल को बना दिया गुलाब,,